aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1690 - 1744 | दिल्ली, भारत
न सैर-ए-बाग़ न मिलना न मीठी बातें हैं
ये दिन बहार के ऐ जान मुफ़्त जाते हैं
उस के रुख़्सार देख जीता हूँ
आरज़ी मेरी ज़िंदगानी है
ज़ुल्फ़ क्यूँ खोलते हो दिन को सनम
मुख दिखाया है तो न रात करो
बुलंद आवाज़ से घड़ियाल कहता है कि ऐ ग़ाफ़िल
कटी ये भी घड़ी तुझ उम्र से और तू नहीं चेता
सिवाए गुल के वो शोख़ अँखियाँ किसी तरफ़ को नहीं हैं राग़िब
तो बर्ग-ए-नर्गिस उपर बजा है लिखूँ जो अपने सजन कूँ पतियाँ
दीवान-ए-शाकिर नाजी
मआ मुक़द्दम-ओ-फ़रहंग
1989
Deewan-e-Shakir Naji
1968
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