मनमोहन तल्ख़
ग़ज़ल 34
नज़्म 4
अशआर 14
मैं ख़ुद में गूँजता हूँ बन के तेरा सन्नाटा
मुझे न देख मिरी तरह बे-ज़बाँ बन कर
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किसी के साथ न होने के दुख भी झेले हैं
किसी के साथ मगर और भी अकेले हैं
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शिकायत और तो कुछ भी नहीं इन आँखों से
ज़रा सी बात पे पानी बहुत बरसता है
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दुनिया मेरी ज़िंदगी के दिन कम करती जाती है क्यूँ
ख़ून पसीना एक किया है ये मेरी मज़दूरी है
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हम कई रोज़ से बे-वजह बहुत ख़ुश हैं चलो
ज़िंदगी की ये अदाएँ भी तो देखी जाएँ
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