माजिद-अल-बाक़री
ग़ज़ल 13
नज़्म 1
अशआर 10
बीस बरस से इक तारे पर मन की जोत जगाता हूँ
दीवाली की रात को तू भी कोई दिया जलाया कर
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बात करना है करो सामने इतराओ नहीं
जो नहीं जानते उस बात को समझाओ नहीं
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क़रीब देख के उस को ये बात किस से कहूँ
ख़याल दिल में जो आया गुनाह जैसा था
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होंट की सुर्ख़ी झाँक उठती है शीशे के पैमानों से
मिट्टी के बर्तन में पानी पी कर प्यास बुझाया कर
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मुझी से पूछ रहा था मिरा पता कोई
बुतों के शहर में मौजूद था ख़ुदा कोई
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