महमूद शाम
ग़ज़ल 36
नज़्म 2
अशआर 7
एक जंगल जिस में इंसाँ को दरिंदों से है ख़ौफ़
एक जंगल जिस में इंसाँ ख़ुद से ही सहमा हुआ
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औने-पौने ग़ज़लें बेचीं नज़्मों का व्यापार किया
देखो हम ने पेट की ख़ातिर क्या क्या कारोबार किया
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चाँदनी शब तू जिस को ढूँडने आई है
ये कमरा वो शख़्स तो कब का छोड़ गया
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बस एक अपने ही क़दमों की चाप सुनता हूँ
मैं कौन हूँ कि भरे शहर में भी तन्हा हूँ
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