ख़ालिद मोईन
ग़ज़ल 11
नज़्म 7
अशआर 13
मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
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लकीरें खींचते रहने से बन गई तस्वीर
कोई भी काम हो, बे-कार थोड़ी होता है
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अजब पुर-लुत्फ़ मंज़र देखता रहता हूँ बारिश में
बदन जलता है और मैं भीगता रहता हूँ बारिश में
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हाथ छुड़ा कर जाने वाले
मैं तुझ को अपना समझा था
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इस शहर-ए-फ़ुसूँ-गर के अज़ाब और, सवाब और
हिज्र और तरह का है, विसाल और तरह का
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