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ख़ालिद हसन क़ादिरी

1927 - 2012 | लंदन, यूनाइटेड किंगडम

ख़ालिद हसन क़ादिरी

ग़ज़ल 8

अशआर 14

बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता

हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता

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आए तुम आओ तुम कि अब आने से क्या हासिल

ख़ुद अब तो हम से अपनी शक्ल पहचानी नहीं जाती

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मिरी जाँ तेरी ख़ातिर जाँ का सौदा

बहुत महँगा भी है दुश्वार भी है

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घुटन तो दिल की रही क़स्र-ए-मरमरीं में भी

रौशनी से हुआ कुछ कुछ हवा से हुआ

तुम्हारे नाम पे दिल अब भी रुक सा जाता है

ये बात वो है कि इस से मफ़र नहीं होता

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