ख़ालिद इबादी
ग़ज़ल 14
अशआर 8
शहर का भी दस्तूर वही जंगल वाला
खोजने वाले ही अक्सर खो जाते हैं
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कभी कभी चुप हो जाने की ख़्वाहिश होती है
ऐसे में जब तीर-ए-सितम की बारिश होती है
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अभी मरने की जल्दी है 'इबादी'
अगर ज़िंदा रहे तो फिर मिलेंगे
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ज़रा सा दर्द और इतनी दवाएँ
पसंद आई नहीं चारागरी तक
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