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खलील तनवीर

1944

खलील तनवीर

ग़ज़ल 14

नज़्म 19

अशआर 32

अपना लहू यतीम था कोई रंग ला सका

मुंसिफ़ सभी ख़मोश थे उज़्र-ए-जफ़ा के सामने

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तिरी निगाह तो ख़ुश-मंज़री पे रहती है

तेरी पसंद के मंज़र कहाँ से लाऊँ मैं

परिंद शाख़ पे तन्हा उदास बैठा है

उड़ान भूल गया मुद्दतों की बंदिश में

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं

सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ

यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं

पुस्तकें 2

 

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