खलील तनवीर
ग़ज़ल 14
नज़्म 19
अशआर 32
तिरी निगाह तो ख़ुश-मंज़री पे रहती है
तेरी पसंद के मंज़र कहाँ से लाऊँ मैं
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परिंद शाख़ पे तन्हा उदास बैठा है
उड़ान भूल गया मुद्दतों की बंदिश में
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हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी
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हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ
यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं
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