खलील तनवीर के शेर
औरों की बुराई को न देखूँ वो नज़र दे
हाँ अपनी बुराई को परखने का हुनर दे
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रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए
हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए
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वो लोग अपने आप में कितने अज़ीम थे
जो अपने दुश्मनों से भी नफ़रत न कर सके
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परिंद शाख़ पे तन्हा उदास बैठा है
उड़ान भूल गया मुद्दतों की बंदिश में
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तेरी आमद की मुंतज़िर आँखें
बुझ गईं ख़ाक हो गए रस्ते
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इस भरे शहर में दिन रात ठहरते ही नहीं
कौन यादों के सफ़र-नामे को तहरीर करे
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हादसों की मार से टूटे मगर ज़िंदा रहे
ज़िंदगी जो ज़ख़्म भी तू ने दिया गहरा न था
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अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं
जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए
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परिंद ऊँची उड़ानों की धुन में रहता है
मगर ज़मीं की हदों में बसर भी करता है
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बहुत अज़ीज़ थे उस को सफ़र के हंगामे
वो सब के साथ चला था मगर अकेला था
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जो ज़ख़्म देता है तो बे-असर ही देता है
ख़लिश वो दे कि जिसे भूल भी न पाऊँ मैं
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वो लोग जिन की ज़माना हँसी उड़ाता है
इक उम्र बअ'द उन्हें मो'तबर भी करता है
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तू मुझ को भूलना चाहे तो भूल सकता है
मैं एक हर्फ़-ए-तमन्ना तिरी किताब में हूँ
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दूर तक एक स्याही का भँवर आएगा
ख़ुद में उतरोगे तो ऐसा भी सफ़र आएगा
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अजीब शख़्स था उस को समझना मुश्किल है
किनार-ए-आब खड़ा था मगर वो प्यासा था
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मैं क्या हूँ कौन हूँ क्या चीज़ मुझ में मुज़्मर है
कई हिजाब उठाए मगर हिजाब में हूँ
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तिरी निगाह तो ख़ुश-मंज़री पे रहती है
तेरी पसंद के मंज़र कहाँ से लाऊँ मैं
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घर में क्या ग़म के सिवा था जो बहा ले जाता
मेरी वीरानी पे हँसता रहा दरिया उस का
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लौह-ए-जहाँ पे इस तरह लिक्खा गया हूँ में
जिस का कोई जवाब नहीं वो सवाल हूँ
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हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ
यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं
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अपना लहू यतीम था कोई न रंग ला सका
मुंसिफ़ सभी ख़मोश थे उज़्र-ए-जफ़ा के सामने
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हुदूद-ए-दिल से जो गुज़रा वो जान-लेवा था
यूँ ज़लज़ले तो कई इस जहान में आए
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ज़माना लाख सितारों को छू के आ जाए
अभी दिलों को मगर हाजत-ए-रफ़ू है वही
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ज़रा सी ठेस लगी थी कि चूर चूर हुआ
तिरे ख़याल का पैकर भी आबगीना था
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वो शहर छोड़ के मुद्दत हुई चला भी गया
हद-ए-उफ़ुक़ पे मगर चाँद रू-ब-रू है वही
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जिन को ज़मीन दीदा-ए-दिल से अज़ीज़ थी
वो कम-निगाह लोग थे हिजरत न कर सके
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शब की दीवार गिरी तो देखा
नोक-ए-नश्तर है सहर कुछ भी नहीं
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तमाम दर्द के रिश्तों से वास्ता न रहे
हिसार-ए-जिस्म से निकलूँ तो बे-सदा हो जाऊँ
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रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में
कि मौज मौज भँवर उम्र का सफ़ीना था
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हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी
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किसे ख़याल था मिटती हुई इबारत का
महक रहा था चमन-दर-चमन समाअ'त का
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क्या बस्तियाँ थीं जिन को हवा ने मिटा दिया
हर नक़्श-ए-बेनवा दर-ओ-दीवार देखिए
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