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कबीर अजमल

1967 - 2020 | बनारस, भारत

कबीर अजमल

ग़ज़ल 15

अशआर 16

उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं

हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो ख़ुद को पाऊँ मैं

कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे

उस से रिश्ता भी रहा वहम गुमाँ से आगे

ज़मीर ज़ेहन में इक सर्द जंग जारी है

किसे शिकस्त दूँ और किस पे फ़त्ह पाऊँ मैं

ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या

मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे

मैं बुझ गया तो कौन उजालेगा तेरा रूप

ज़िंदा हूँ इस ख़याल में मरता हुआ सा मैं

पुस्तकें 1

 

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