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इश्क़ औरंगाबादी

- 1780 | औरंगाबाद, भारत

इश्क़ औरंगाबादी

ग़ज़ल 40

अशआर 18

'इश्क़' रौशन था वहाँ दीदा-ए-आहू से चराग़

मैं जो यक रात गया क़ैस के काशाने में

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आईना कभी क़ाबिल-ए-दीदार होवे

गर ख़ाक के साथ उस को सरोकार होवे

ये बुत हिर्स-ओ-हवा के दिल के जब काबा में तोडूँगा

तुम्हारी सुब्हा में कब शैख़-जी ज़ुन्नार छोड़ूँगा

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तू ने क्या देखा नहीं गुल का परेशाँ अहवाल

ग़ुंचा क्यूँ ऐंठा हुआ रहता है ज़रदार की तरह

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मज़ा आब-ए-बक़ा का जान-ए-जानाँ

तिरा बोसा लिया होवे सो जाने

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