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इक़बाल कौसर

इक़बाल कौसर

ग़ज़ल 14

नज़्म 3

 

अशआर 10

जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं

आज कल हम तिरे बारे में बहुत सोचते हैं

तिरी पहली दीद के साथ ही वो फ़ुसूँ भी था

तुझे देख कर तुझे देखना मुझे गया

ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है

यहाँ है फ़ाएदा ख़ुद को अगर नुक़सान में रख लें

वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने

रौशनी देता था जो एक दिया अंदर से

बनना था तो बनता फ़रिश्ता ख़ुदा मैं

इंसान ही बनता मिरी तकमील तो ये थी

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