हमीद जालंधरी
ग़ज़ल 7
अशआर 7
आने लगे हैं वो भी अयादत के वास्ते
ऐ चारागर मरीज़ को अच्छा किया न जाए
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सीने में राज़-ए-इश्क़ छुपाया न जाएगा
ये आग वो है जिस को दबाया न जाएगा
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फिर गई इक और ही दुनिया नज़र के सामने
बैठे बैठे क्या बताऊँ क्या मुझे याद आ गया
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उन की जफ़ाओं पर भी वफ़ा का हुआ गुमाँ
अपनी वफ़ाओं को भी फ़रामोश कर दिया
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हुई मुद्दत कि उन को ख़्वाब में भी अब नहीं देखा
मैं जिन गलियों में अपने दोस्तों के साथ खेला था
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