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हबीब अहमद सिद्दीक़ी

1908

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 26

अशआर 35

मेरे लिए जीने का सहारा है अभी तक

वो अहद-ए-तमन्ना कि तुम्हें याद होगा

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वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या

जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल हुआ

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इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात

क्या पूछते हो कितनी नदामत है आज तक

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मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू हुआ

यूँ भी अक्सर बहार आई है

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हज़ारों तमन्नाओं के ख़ूँ से हम ने

ख़रीदी है इक तोहमत-ए-पारसाई

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