गोपाल मित्तल
ग़ज़ल 30
नज़्म 13
अशआर 9
फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया
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क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वर्ना यूँ फ़रेब में आता बहार के
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तर्क-ए-तअल्लुक़ात ख़ुद अपना क़ुसूर था
अब क्या गिला कि उन को हमारी ख़बर नहीं
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क़िस्सा 3
पुस्तकें 391
चित्र शायरी 1
दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के हैं मश्ग़ले यही दिल-ए-ना-कर्दा-कार के यूँ दिल को छेड़ कर निगह-ए-नाज़ झुक गई छुप जाए कोई जैसे किसी को पुकार के सीने को अपने अपना गरेबाँ बना के हम क़ाएल नहीं हैं पैरहन-ए-तार-तार के क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में मैं वर्ना यूँ फ़रेब में आता बहार के इक दिल और उस पे हसरत-ए-अरमाँ का ये हुजूम क्या क्या करम हैं मुझ पे मिरे कर्दगार के हम को तो रोज़-ए-हश्र का भी कुछ यक़ीं नहीं क्या मुंतज़िर हूँ वादा-ए-फ़र्दा-ए-यार के किस दिल से तेरा शिकवा-ए-बेदाद कर सकें मारे हुए हैं हम निगह-ए-शर्मसार के