फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल 58
अशआर 5
तू जफ़ाओं से जो बदनाम किए जाता है
याद आएगी तुझे मेरी वफ़ा मेरे बाद
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
शगुफ़्ता बाग़-ए-सुख़न है हमीं से ऐ 'साबिर'
जहाँ में मिस्ल-ए-नसीम-ए-बहार हम भी हैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
तुम ने क्यूँ दिल में जगह दी है बुतों को 'साबिर'
तुम ने क्यूँ काबा को बुत-ख़ाना बना रक्खा है
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
उन की मानिंद कोई साहब-ए-इदराक कहाँ
जो फ़रिश्ते नहीं समझे वो बशर समझे हैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए