फ़रियाद आज़र
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 11
अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं ज़िंदगी का देते देते सूद ख़त्म हो गया
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ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
ख़त्म अब घर का तसव्वुर है मकाँ बाक़ी है
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बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
और कभी क़तरा समुंदर में बदल जाता है
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जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
क़रीब आया तो रोया गले लगा के मुझे
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