फ़ारिग़ बुख़ारी के शेर
सफ़र में कोई किसी के लिए ठहरता नहीं
न मुड़ के देखा कभी साहिलों को दरिया ने
याद आएँगे ज़माने को मिसालों के लिए
जैसे बोसीदा किताबें हों हवालों के लिए
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पुकारा जब मुझे तन्हाई ने तो याद आया
कि अपने साथ बहुत मुख़्तसर रहा हूँ मैं
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कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही
दो दरिया भी जब आपस में मिलते हैं
दोनों अपनी अपनी प्यास बुझाते हैं
नई मंज़िल का जुनूँ तोहमत-ए-गुमराही है
पा-शिकस्ता भी तिरी राह में कहलाया हूँ
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यही है दौर-ए-ग़म-ए-आशिक़ी तो क्या होगा
इसी तरह से कटी ज़िंदगी तो क्या होगा
हम एक फ़िक्र के पैकर हैं इक ख़याल के फूल
तिरा वजूद नहीं है तो मेरा साया नहीं
तुम्हारे साथ ही उस को भी डूब जाना है
ये जानता है मुसाफ़िर तिरे सफ़ीने का
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हज़ार तर्क-ए-वफ़ा का ख़याल हो लेकिन
जो रू-ब-रू हों तो बढ़ कर गले लगा लेना
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क्या ज़माना है ये क्या लोग हैं क्या दुनिया है
जैसा चाहे कोई वैसा नहीं रहने देते
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दीवारें खड़ी हुई हैं लेकिन
अंदर से मकान गिर रहा है
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जलते मौसम में कोई फ़ारिग़ नज़र आता नहीं
डूबता जाता है हर इक पेड़ अपनी छाँव में
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मंसूर से कम नहीं है वो भी
जो अपनी ज़बाँ से बोलता है
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मोहब्बतों की शिकस्तों का इक ख़राबा हूँ
ख़ुदारा मुझ को गिराओ कि मैं दोबारा बनूँ
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जितने थे तेरे महके हुए आँचलों के रंग
सब तितलियों ने और धनक ने उड़ा लिए
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ज़िंदगी में ऐसी कुछ तुग़्यानीयाँ आती रहीं
बह गईं हैं उम्र भर की नेकियाँ दरियाओं में
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हम से इंसाँ की ख़जालत नहीं देखी जाती
कम-सवादों का भरम हम ने रवा रक्खा है
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मसीह-ए-वक़्त सही हम को उस से क्या लेना
कभी मिले भी तो कुछ दर्द-ए-दिल बढ़ा लेना
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उस रिंद-ए-सियह-मस्त का ईमान न पूछो
तिश्ना हो तो मख़्लूक़ है पी ले तो ख़ुदा हो
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