फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल 48
अशआर 5
चित्र शायरी 1
जो मिटा है तेरे जमाल पर वो हर एक ग़म से गुज़र गया हुईं जिस पे तेरी नवाज़िशें वो बहार बन के सँवर गया तिरी मस्त आँख ने ऐ सनम मुझे क्या नज़र से पिला दिया कि शराब-ख़ाने उजड़ गए जो नशा चढ़ा था उतर गया तिरा 'इश्क़ है मिरी ज़िंदगी तिरे हुस्न पे मैं निसार हूँ तिरा रंग आँख में बस गया तिरा नूर दिल में उतर गया कि ख़िरद की फ़ित्नागरी वही लुटे होश छा गई बे-ख़ुदी वो निगाह-ए-मस्त जहाँ उठी मिरा जाम-ए-ज़िंदगी भर गया दर-ए-यार तू भी 'अजीब है है 'अजीब तेरा ख़याल भी रही ख़म जबीन-ए-नियाज़ भी मुझे बे-नियाज़ भी कर गया तिरे दीद से ऐ सनम चमन आरज़ुओं का महक उठा तिरे हुस्न की जो हवा चली तो जुनूँ का रंग निखर गया मुझे सब ख़बर है मिरे सनम कि रह-ए-'फ़ना' में हयात है उसे मिल गई नई ज़िंदगी तिरे आस्ताँ पे जो मर गया