दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल 51
अशआर 35
तू देख रहा है जो मिरा हाल है क़ासिद
मुझ को यही कहना है कि मैं कुछ नहीं कहता
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इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे
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कोई दिल-लगी दिल लगाना नहीं है
क़यामत है ये दिल का आना नहीं है
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वफ़ा पर दग़ा सुल्ह में दुश्मनी है
भलाई का हरगिज़ ज़माना नहीं है
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