चन्द्रभान ख़याल
ग़ज़ल 17
नज़्म 19
अशआर 20
पास से देखा तो जाना किस क़दर मग़्मूम हैं
अन-गिनत चेहरे कि जिन को शादमाँ समझा था मैं
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सोचता हूँ तो और बढ़ती है
ज़िंदगी है कि प्यास है कोई
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क्या उसी का नाम है रा'नाई-ए-बज़्म-ए-हयात
तंग कमरा सर्द बिस्तर और तन्हा आदमी
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नज़र में शोख़ शबीहें लिए हुए है सहर
अभी न कोई इधर से धुआँ धुआँ गुज़रे
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शहर में जुर्म-ओ-हवादिस इस क़दर हैं आज-कल
अब तो घर में बैठ कर भी लोग घबराने लगे
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