बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल 46
अशआर 17
हमारी ज़िंदगी तो मुख़्तसर सी इक कहानी थी
भला हो मौत का जिस ने बना रक्खा है अफ़्साना
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सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया
इक मिरी बेकसी नहीं जाती
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जो सुनता हूँ सुनता हूँ मैं अपनी ख़मोशी से
जो कहती है कहती है मुझ से मिरी ख़ामोशी
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