अज़रा वहीद
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 8
तुझ को पाएँ तुझे खो बैठें फिर
ज़िंदगी एक थी डर कितने थे
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दिलों में तल्ख़ियाँ फिर भी नज़र में मुस्कुराहट हो
बला के हब्स में भी हो हवा ऐसा भी होता है
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नुमू के रब कभी उस मुंसिफ़ी की दाद तो दे
शजर कोई न लगाया समर समेटा है
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मैं कौन हूँ कि है सब काँच का वजूद मिरा
मिरा लिबास भी मैला दिखाई देता है
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लहू रुलाते हैं और फिर भी याद आते हैं
मोहब्बतों के पुराने निसाब से कुछ हैं
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