अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
ग़ज़ल 9
अशआर 9
आज भी नक़्श हैं दिल पर तिरी आहट के निशाँ
हम ने उस राह से औरों को गुज़रने न दिया
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याद रखना भी इक इबादत है
क्यूँ न हम उन का हाफ़िज़ा हो जाएँ
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इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
भूला हुआ हूँ ठोकरें खाने के बअ'द भी
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आओ तो मेरे सहन में हो जाए रौशनी
मुद्दत गुज़र गई है चराग़ाँ किए हुए
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सवेरा ले के आता है मिरे ख़्वाबों की ताबीरें
मगर जब शाम होती है तो उन की याद आती है
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