अमानत लखनवी
ग़ज़ल 13
अशआर 15
किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
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बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले
देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं
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किस क़दर दिल से फ़रामोश किया आशिक़ को
न कभी आप को भूले से भी मैं याद आया
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महशर का किया वा'दा याँ शक्ल न दिखलाई
इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं
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