अख्तर शुमार
ग़ज़ल 15
नज़्म 1
अशआर 12
मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने
तू समझता है मुझे तुझ से गिला कुछ भी नहीं
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अभी सफ़र में कोई मोड़ ही नहीं आया
निकल गया है ये चुप-चाप दास्तान से कौन
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मैं घर को फूँक रहा था बड़े यक़ीन के साथ
कि तेरी राह में पहला क़दम उठाना था
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मुद्दतों में आज दिल ने फ़ैसला आख़िर दिया
ख़ूब-सूरत ही सही लेकिन ये दुनिया झूट है
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अब तो हाथों से लकीरें भी मिटी जाती हैं
उस को खो कर तो मिरे पास रहा कुछ भी नहीं
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