अख्तर सईदी
ग़ज़ल 24
अशआर 6
ज़ख़्म-ए-निगाह ज़ख़्म-ए-हुनर ज़ख़्म-ए-दिल के बा'द
इक और ज़ख़्म तुझ से बिछड़ कर मिला मुझे
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मुझे हासिल कमाल-ए-गुफ़्तुगू है
ये मैं हूँ या मिरे लहजे में तू है
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जब तिश्नगी बढ़ी तो मसीहा न था कोई
जब प्यास बुझ गई तो समुंदर मिला मुझे
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रवाँ-दवाँ है ज़िंदगी चराग़ के बग़ैर भी
है मेरे घर में रौशनी चराग़ के बग़ैर भी
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