अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल 52
अशआर 47
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था
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न जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ
हमें तो घर में भी रुकने का हौसला न हुआ
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'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है
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वो पेड़ तो नहीं था कि अपनी जगह रहे
हम शाख़ तो नहीं थे मगर फिर भी कट गए
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