अकबर हमीदी
ग़ज़ल 21
अशआर 18
रात दिन फिर रहा हूँ गलियों में
मेरा इक शख़्स खो गया है यहाँ
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हू-ब-हू आप ही की मूरत है
ज़िंदगी कितनी ख़ूब-सूरत है
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जल कर गिरा हूँ सूखे शजर से उड़ा नहीं
मैं ने वही किया जो तक़ाज़ा वफ़ा का था
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हवा सहला रही है उस के तन को
वो शोला अब शरारे दे रहा है
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कई हर्फ़ों से मिल कर बन रहा हूँ
बजाए लफ़्ज़ के अल्फ़ाज़ हूँ मैं
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