ऐन ताबिश
ग़ज़ल 18
नज़्म 11
अशआर 14
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
तकलीफ़ किसी के लिए आराम किसी का
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जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
ज़िंदगी क्या है मियाँ बस एक घर ख़्वाबों का है
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बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए
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एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
चाहने वाले बहुत अपने पुराने थे उधर
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रेखाचित्र 1
पुस्तकें 10
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