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अहमद नदीम क़ासमी की कहानियाँ
कपास का फूल
अधूरी रह गई मोहब्बत में सारी ज़िंदगी तन्हा गुज़ार देने वाली एक बूढ़ी औरत की कहानी। उसके पास जीने का कोई जवाज़ नहीं बचा है और वह हरदम मौत को पुकारती रहती है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नौजवान लड़की आती है, जो कपास के फूल की तरह नर्म और नाजु़क है। वह उसका ख़्याल रखती है और यक़ीन दिलाती है कि इस बुरे वक़्त में उसकी क़द्र करने वाला कोई है। मगर उन्हीं दिनों भारतीय फ़ौज गाँव पर हमला कर देती है और माई ताजो का वह फूल किसी कीड़े की तरह मसल दिया जाता है।
आलाँ
आलाँ गाँव के मरहूम मोची की एक अल्हड़ और खूबसूरत लड़की है जिसका बाप उसे बिना जूते गांठना सिखाए मर गया था। इसलिए वह सारे गाँव के घरों में काम करती है और अपना गुज़र-बसर करती है।आरिफ़ मियाँ गाँव में अपने बाप की बर्सी पर आया हुआ है। हवेली में उसकी मुलाकात आलाँ से होती है। गाँव के नौजवान लड़के समझते हैं कि आलाँ निकम्मी है और कुछ नहीं जानती। हालाँकि आलाँ सारे काम करना जानती है। वह आटा पीसती है, फर्श लीपती है, मिर्च कूटती है, पानी भरती है और भी बहुत से काम जानती है। जाने से पहले जब आरिफ़ उससे मिलने आता है तो वह उसके सामने राज़ फ़ाश करते हुए कहती है, आलाँ प्यार करना भी जानती है।
अलहम्दु लिल्लाह
मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुजारते एक गाँव के मौलाना की कहानी। मौलाना की जब नई-नई शादी हुई थी तो गाँव भर से इतना नज़राना आ जाता था कि दोनों मियाँ-बीवी का अच्छी तरह से हो जाता था। मगर जैसे-जैसे घर में बच्चों की तादाद बढ़ती गई दो वक़्त की रोटी का मयस्सर होना भी मुश्किल होता गया। ज़िंदगी की इन मुश्किलात में एक शख्स ऐसा था जिसने मौलाना का पूरा साथ दिया। मगर क़हर तो तब टूटा जब एक दिन उस शख़्स की मौत हो गई और मौलाना तन्हा खड़े रह गए।
गंडासा
मुहब्बत इंसान की शख़्सियत को बदल देती है। मौला एक गबरू जवान है। रंगा और उसके बेटे मिलकर मौला के बाप का क़त्ल कर देते हैं। इसके बदले में मौला रंगा और उसके बेटे को क़त्ल कर देता है। इसके बाद मौला की दहशत सारे गाँव में फैल जाती है। एक रोज़ उसका सामना राजो से होता है, जो रंगा के छोटे बेटे की मंगेतर है। एक दिन मौला बस अड्डे पर एक दुकान पर बैठा होता है कि राजो का मंगेतर अपने चार साथियों के साथ बस से उतरता है और मौला के कस कर थप्पड़ मार देता है। मौला उसे पकड़ लेता है लेकिन उसका क़त्ल नहीं करता। वार करने के लिए तैयार उसका गंडासा जहाँ का तहाँ रुक जाता है...
परमेशर सिंह
बँटवारे के समय पाँच बरस का अख़्तर पाकिस्तान जाते एक समूह में अपनी माँ से बिछड़ जाता है और भारत में ही रह जाता है। सीमा के पास सिखों के एक गिरोह को वह मिलता है। उनमें से एक परमेश्वर सिंह उसे अपने बेटा करतार सिंह बनाकर घर ले आता है। करतार सिंह भी दंगे के दौरान कहीं खो गया है। अख़्तर के साथ परमेश्वर सिंह की बेटी और बीवी का रवैया अच्छा नहीं है। अख़्तर भी अपनी अम्मी के पास जाने की रट लगाए रखता है। एक रोज़ गाँव में बिछड़े लोगों को ले जाने के लिए फ़ौज की गाड़ी गाँव में आती है, तो परमेश्वर सिंह अख़्तर को छुपा देता है। लेकिन फिर ख़ुद ही उसे सैनिकों के कैंप के पास छोड़ जाता है, जहाँ सैनिक परमेश्वर पर गोली चला देता है और अख़्तर अम्मी के पास जाने के बजाए परमेश्वर के पास दौड़ा चला आता है।
मामता
विदेशी सरज़मीं पर अपनी माँ की याद में तड़पते एक शख़्स की कहानी है। अंग्रेज़ी फ़ौज में भर्ती हो वह हॉंगकॉंग आ गया था। यहाँ आने से पहले उसने यहाँ कि अमीरी के बहुत से किस्से सुने थे मगर जब बदहाल चीनियों की शक्लें देखी तो उसके वे सारे ख़्वाब हवा हो गए। वह हॉंगकॉंग की हालत देखता और अपनी माँ को याद करता है। अंग्रेज़ हारे तो जापानी आ गए। वह जापानी फ़ौज में शामिल हो गया। फ़ौज ने एक चीनी गाँव पर धावा बोला, तो उसे वहाँ भी अपने बेटे के इंतिज़ार में तड़पती एक माँ मिली।
कफ़न दफ़न
मियां सैफ़-उल-हक़ एक अच्छी और भरपूरी ज़िंदगी जी रहे थे कि अचानक एक रोज़ मस्जिद जाते वक़्त रास्ते में उन्हें लाश के साथ एक आदमी मिला। उस आदमी का नाम ग़फू़र है। ग़फू़र के पास इतने पैसे नहीं है कि वह अपनी मरी हुई बीवी का कफ़न-दफ़न कर सके। मियाँ साहब यह सोचकर उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठाते हैं कि वह अपने बेटे हामिद का कफ़न-दफ़न कर रहे हैं। हामिद कई बरस पहले गुमनामी की मौत मर गए थे। ग़फू़र अपनी बीवी के कफ़न-दफ़न के बाद चला जाता है और काफ़ी अर्से बाद फिर वापस आता है और मियाँ साहब को कुछ रुपये देकर कहता है कि मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि मेरी बीवी का कफ़न-दफ़न नहीं हुआ है। आपने उसे हामिद समझकर दफ़नाया था। मेरी बीवी तो ऐसी ही रह गई। मना करने पर भी वह मियाँ साहब को रुपये देता हुआ कहता है, मैंने तो आज ही अपनी कली को अपने हाथों से क़ब्र में उतारा है मियाँ जी।”
वह्शी
अपनी खु़द्दारी के लिए लड़ती एक बुढ़ी औरत की कहानी, जिसके पास किराया देने के लिए पूरे पैसे नहीं है। वह बस में चढ़ी तो बहुत भीड़ थी। वह कोशिश करके एक सीट पर बैठ गई। कंडक्टर टिकट के लिए आया तो उसने पैसे बढ़ा दिए। लेकिन पैसे पूरे नहीं थे, तो कंडक्टर के साथ उसकी कहा-सुनी हो गई। तभी एक दूसरे शख़्स ने उसका किराया देना चाहा तो उसने लेने से इनकार कर दिया और बस से उतर गई।
बाबा नूर
‘इतिहास जंगे याद रखता है। उनमें शहीद होने वाले सैनिक। वह विजेताओं की गाथा गाता है और लाशों के ढ़ेर को भूला देता है।’ लाशों की उसी ढ़ेर में से एक बाबा नूर का बेटा है। बाबा नूर बिला नाग़ा पास के डाकख़ाने जाते हैं। इस पर छोटे बच्चे उनका मज़ाक उड़ाते हैं और बड़े उनका एहतराम करते हैं। बाबा नूर डाकख़ाने जा कर वहाँ मुंशी से पूछते हैं कि क्या उनके बेटे की कोई चिट्ठी आई है? मुंशी हर बार की तरह कहता है, नहीं। उसके जाने के बाद बैठे लोगों से मुंशी कहता है, मैंने उसे वह चिट्ठी पढ़कर सुनाई थी जिसमें ख़बर थी कि बाबा का बेटा बर्मा में बम के गोले का शिकार हो चुका है। जब से वो पागल सा हो गया है। मगर ख़ुदा की क़सम है दोस्तो, अगर आज के बाद वो फिर मेरे पास यही पूछने आया, तो मुझे भी पागल कर जाएगा।
उलझन
अपनी शादी के तामझाम पर खुद से ही तब्सिरा करती एक लड़की की कहानी। शादी इंसान की ज़िंदगी का सबसे अहम मरहला होता है। इस अमल के बारे में नौजवान और उनमें भी ख़ासतौर से लड़कियाँ ढ़ेरों ख़्वाब सजाए रहती हैं। मगर जब शादी होती है तब एहसास होता है कि वे ख़्वाब हक़ीक़त से कितनी दूर थे। शादी की चहल-पहल, रिश्तेदारों की बतकही और फिर जीवन-साथी से होने वाली मुलाकातें, सब मिलकर इंसान को एक उलझन में डाल देते हैं।
मासी गुल-बानो
मोहब्बत के छिन जाने के ग़म में पागल हो गई एक लड़की की कहानी। उस दिन वह मायो में बैठी हुई अपने दुल्हे के साथ होने वाली अपनी पहली मुलाक़ात के ख़्वाब देख रही थी, जब बारात की जगह ख़बर आई कि दुल्हा एक लड़ाई में मारा गया। अपने होने वाले शौहर की मौत की ख़बर सुनकर पहले गुल बानो गुमसुम बैठी रही और फिर इतना रोई कि पागल ही हो गई। उसके बारे में गाँव में अजीब-ओ-ग़रीब बातें और क़िस्से मशहूर हो गए, जिनकी वजह से वह एक जीती-जागती इंसान से किसी आसमानी मख्लूक़ मख़्लूक़ में तब्दील हो गई।
बैन
एक पीर के इश्क में दीवानी होकर मर जाने वाली लड़की की कहानी। अपने पैदाइश के वक़्त से ही वह अपने माँ-बाप की चहीती थी। उसकी हर चीज़ अनोखी और दूसरों से अलग थी। वह थोड़ी बड़ी हुई तो दूसरे बच्चों की तरह खेलने की बजाए उसने कु़रआन और दीन सीखना शुरू कर दिया। फिर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई अपनी दीनदारी के लिए वह पूरे इलाके़ में मशहूर हो गई। मगर कौन जानता था कि एक दिन यही दीनदारी उसकी जान ले लेगी।
मुख़्बिर
यह आबकारी विभाग के एक कामयाब मुख़्बिर के नाकाम हो जाने की कहानी है। वह जब आबकारी विभाग में आया था तो ठेकेदार ने उसे अपने दो क़रीबी मुख़्बिरों से मिलवाया था। जिसमें एक की उसने बहुत तारीफ़ की थी। उसके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए वह कामयाब था भी। मगर पता नहीं उस दिन के बाद क्या हुआ कि वह मुख़्बिर एक भी नया केस नहीं ला सका। उसके खाने के लिए भीख मांगनी पड़ी और जब खाना मिलने के रास्ते भी बंद हो गए उसने अपने ही भाई की मुख़्बिरी कर दी।
गुल रुख़े
अपनी बेटी की बीमारी से तड़पते एक पठान की कहानी। जो उसे केवल इसलिए बचाना चाहता है, क्योंकि वह जवान है। वह जब डॉक्टर के पास आया तो वहाँ बहुत से मरीज़ जमा थे। मगर वह ज़बरदस्ती उसे अपने साथ ले गया और सारा रास्ता उसकी मिन्नतें करता रहा कि वह उसकी बेटी को बचा ले, क्योंकि वह जवान है। दो-तीन दिन में ही जब पठान की बेटी ठीक हो गई तो डॉक्टर ने उससे पूछा कि आख़िर वह बार-बार अपनी बेटी के जवान होने का ज़िक्र क्यों करता है। इस पर पठान ने जो जवाब दिया उसे सुनकर डॉक्टर ला-जवाब रह गया।