अहमद अशफ़ाक़
ग़ज़ल 10
अशआर 11
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
जब कोई शख़्स बद-गुमाँ हो जाए
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फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
अब परायों में कर शुमार मुझे
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बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
शुक्र है मेरे ख़ुदा ने मुझे शोहरत नहीं दी
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बहुत बईद न था मसअलों का हल होना
अना के पाँव से ज़ंजीर हम हटा न सके
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अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
मिरी वहशत कोई ताज़ा अज़िय्यत चाहती है
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