अफ़ज़ल इलाहाबादी
ग़ज़ल 21
अशआर 15
मैं चाहता था कि उस को गुलाब पेश करूँ
वो ख़ुद गुलाब था उस को गुलाब क्या देता
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में इज़्तिराब के आलम में रक़्स करता रहा
कभी ग़ुबार की सूरत कभी धुआँ बन कर
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अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है
मुझ को दुश्मन से नहीं यार से डर लगता है
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वो जिस ने देखा नहीं इश्क़ का कभी मकतब
मैं उस के हाथ में दिल की किताब क्या देता
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