अबरार आज़मी
ग़ज़ल 13
नज़्म 21
अशआर 9
कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था
कल रात कोई फिर मिरा मेहमान बना था
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तमाम रात वो पहलू को गर्म करता रहा
किसी की याद का नश्शा शराब जैसा था
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परिंदे फ़ज़ाओं में फिर खो गए
धुआँ ही धुआँ आशियानों में था
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मुझे भी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल न थी
और उस को पास किसी और के भी जाना था
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आवाज़ों का बोझ उठाए सदियों से
बंजारों की तरह गुज़ारा करता हूँ
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