अब्दुल हमीद
ग़ज़ल 12
अशआर 12
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
हवा कहती है मुझ से ये तमाशा कैसा लगता है
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दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं
एक लम्हा जो किसी तरह गुज़रता ही नहीं
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लौट गए सब सोच के घर में कोई नहीं है
और ये हम कि अंधेरा कर के बैठ गए हैं
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उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे
सब कुछ उल्टा सीधा कर के बैठ गए हैं
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लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें
पर हम ने कि अपने को इंसान बहुत रक्खा
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