आतिश बहावलपुरी
ग़ज़ल 11
अशआर 16
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
वो न मानें तो मान जाओ तुम
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उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
जफ़ा भी करते नहीं वो कभी जफ़ा की तरह
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अपने चेहरे से जो ज़ुल्फ़ों को हटाया उस ने
देख ली शाम ने ताबिंदा सहर की सूरत
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मुझे भी इक सितमगर के करम से
सितम सहने की आदत हो गई है
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