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औरत

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    तल्ख़ी-ए-अंजाम जब सब कोशिशें नाकाम हों

    ख़ुशनुमा सेबों की हल्की तुरशियाँ जब ख़ाम हों

    देख कर ये इक़्तिबास-ए-कार-गाह-ए-इंस-ओ-जाँ

    कार-पर्दाज़ान-ए-क़ुदरत में हुईं सरगोशियाँ

    एक बोला इम्तिज़ाज उन का क़यामत साज़ है

    दूसरा कहने लगा ख़ामोश कोई राज़ है

    ये अनासिर एक मुद्दत तक रहे गर्म-ए-अमल

    आख़िरी तहरीक-ए-इस्मत से हुए आपस में हल

    सुब्ह-दम जब गोशा गोशा मतला-ए-अनवार था

    ज़र्रा ज़र्रा आलम-ए-नैरंग का सरशार था

    इस मुरक्कब को उसूली जुन्बिशें होने लगीं

    ये हयूला इर्तिक़ाई मंज़िलें तय कर गया

    शह-पर-ए-परवाज़ इफ़्फ़त से बुलंदी पर गया

    ए'तिदाल-ए-उंसुरी पर पा लिया जब इक़्तिदार

    ऐन-फ़ितरत के मुताबिक़ शक्ल की इक इख़्तियार

    आई आ'ज़ा में गुदाज़ी और गर्मी जिस्म में

    आई रुख़्सारों पे सुर्ख़ी और नर्मी जिस्म में

    पाया-ए-तकमील को पहुँचा जूँही ये शाहकार

    दस्त-ए-क़ुदरत ने टटोली नब्ज़ उस की बार बार

    बिस्तर-ए-निकहत पे ये पुतली जो महव-ए-ख़्वाब थी

    मस्त अंगड़ाई के हाथों जाग उठी शर्मा गई

    देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा

    और बे-सोचे ज़माने ने उसे ''औरत'' कहा

    स्रोत :
    • पुस्तक : meri behtareen nazam (पृष्ठ 70)

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