अदीब की महबूबा
रोचक तथ्य
एक ऐसी मज़ाहिया नज़्म जिसमें मशहूर शायरों और अदीबों के नामों का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है.
तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे 'मीर' की ग़ज़लें गा रहा हूँ
बहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ
बहुत दिनों से तुम्हारे जल्वे 'ख़दीजा-मस्तूर' हो गए हैं
है शुक्र-ए-बारी कि सामने अपने आज फिर तुम को पा रहा हूँ
लिहाफ़ 'इस्मत' का ओढ़ कर तुम फ़साने 'मंटो' के पढ़ रही हो
पहन के 'बेदी' का गर्म कोट आज तुम से आँखें मिला रहा हूँ
तुम्हारे घर 'नून-मीम-राशिद' का ले के आया सिफ़ारशी ख़त
मगर तअज्जुब है फिर भी तुम से नहीं मैं कुछ 'फ़ैज़' पा रहा हूँ
बहुत है सीधी सी बात मेरी न जाने तुम क्यूँ नहीं समझतीं
क़सम ख़ुदा की कलाम-ए-'ग़ालिब' नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ
तुम्हारी ज़ुल्फ़-ए-सियह पे तन्क़ीद किस से लिखवाऊँ तुम ही बोलो
'श्री-इबादत-बरेलवी' को मैं तार दे कर बुला रहा हूँ
मैं तुम पे हूँ 'जाँ-निसार-अख़्तर' क़सम है 'मुंशी-फ़िदा-अली' की
बहुत दिनों से मैं तुम पे 'साहिर' से जादू टोने करा रहा हूँ
अगर हो तुम 'हाजरा' तो फिर मुझ से मिल के 'मसरूर' क्यूँ नहीं हो
तुम्हारे आगे 'ओपेंदर-नाथ-अश्क' बन के आँसू बहा रहा हूँ
हसीं हो ज़ेहरा-जमाल हो तुम मुझे सता कर निहाल हो तुम
तुम्हारे ये ज़ुल्म 'क़ुर्रत-उल-ऐन' को बताने मैं जा रहा हूँ
मिरी मोहब्बत की दास्ताँ सुन के रो पड़े 'जोश-मलसियानी'
सुखा के पंखे से उन के आँसू अभी वहाँ से मैं आ रहा हूँ
मिरी तबाही पे छाप देंगे नुक़ूश का एक ख़ास नंबर
'तुफ़ैल-साहब' के पास सारे मुसव्वदे ले के जा रहा हूँ
'वज़ीर-आग़ा' पठान हैं साथ साथ यारों के यार भी हैं
पकड़ के वो तुम को पीट देंगे मैं कल उन्हें साथ ला रहा हूँ
'हकीम-यूसुफ़-अली' ने जब मेरी नब्ज़ देखी तो रो के बोले
'जिगर' है ज़ख़्मी तबाह गुर्दे ये बात तुम से छुपा रहा हूँ
मलीहाबाद आज जा रहा हूँ मैं 'जोश' लाऊँ कि आम लाऊँ
हैं दोनों चीज़ें वहाँ की अच्छी मैं लाऊँ क्या तिलमिला रहा हूँ
जो हुक्म दो 'वाजिदा-तबस्सुम' का कुछ तबस्सुम मैं तुम को ला दूँ
तुम्हारे होंटों पे ग़म की मौजों को देख कर तिलमिला रहा हूँ
फ़साना-ए-इश्क़ मुख़्तसर है क़सम ख़ुदा की न बोर होना
'फ़िराक़-गोरखपुरी' की ग़ज़लें नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ
मिरी मोहब्बत की दास्ताँ को गधे की मत सरगुज़िश्त समझो
मैं 'कृष्ण-चंद्र' नहीं हूँ ज़ालिम यक़ीन तुम को दिला रहा हूँ
पिलाओ आँखों से ताकि मुझ को कुछ 'आल-ए-अहमद-सुरूर' आए
बहुत हैं ग़म मुझ को आशिक़ी के बिना पिए डगमगा रहा हूँ
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