सुबू उठा मिरे साक़ी कि रात जाती है
सुबू उठा मिरे साक़ी कि रात जाती है
नज़र मिला मिरे साक़ी कि रात जाती है
कि तू मनाए मुझे इस लिए मैं रूठा हूँ
मुझे मना मिरे साक़ी कि रात जाती है
है मेरी जान मिरी जाँ तिरे तबस्सुम में
तू मुस्कुरा मिरे साक़ी कि रात जाती है
शब-ए-विसाल की ख़ुशबू फ़ज़ा की रंगीनी
कहीं से ला मिरे साक़ी कि रात जाती है
किसी बहार का नग़्मा कोई सुहानी ग़ज़ल
तू गुनगुना मिरे साक़ी कि रात जाती है
फिर इक फ़रेब में ये शब गुज़र न जाए कहीं
क़सम न खा मिरे साक़ी कि रात जाती है
क़रीब हो के भी 'आज़िम' के तू क़रीब नहीं
पलट के आ मिरे साक़ी कि रात जाती है
- पुस्तक : Aaghaz (पृष्ठ 34)
- रचनाकार : Aazim Gurvinder Singh Kohli
- प्रकाशन : Aazim Gurvinder Singh Kohli, 3/78 Punjabi Bagh,New Delhi-110026 (january 1998)
- संस्करण : january 1998
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