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तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था

नातिक़ गुलावठी

तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था

नातिक़ गुलावठी

MORE BYनातिक़ गुलावठी

    तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था

    नशात-आईन कैफ़-ए-बे-दिली यारब अगर दिल था

    ब-फ़ैज़-ए-बे-ख़ुदी ऐसे मक़ाम-ए-शौक़ में हम थे

    जहाँ कार-ए-हुसूल-ए-मुद्दआ तहसील-ए-हासिल था

    मक़ाम-ए-हू सुवैदा-ए-मुजर्रद आलम-ए-हैरत

    मिरी गुम-गश्तगी से अब ये नक़्शा है जहाँ दिल था

    हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा

    हम उठ जाते तो वो पर्दा भी उठ जाता जो हाइल था

    कहाँ ज़ौक़-ए-तन-आसानी में आसानी मयस्सर थी

    तलाश-ए-राहत-ए-मंज़िल में दिल गुम-कर्दा मंज़िल था

    शिकायत सुन के आदाब-ए-मोहब्बत कह दिया उस ने

    मुझे कह सुन के चुप होना पड़ा आख़िर कि क़ाइल था

    ज़बान-ए-'दाग़' शान-ए-'ज़ौक़' कुछ इस में नहीं 'नातिक़'

    अरे ये क्या है तू तो हम-नवा-ए-'नूह' 'साइल' था

    स्रोत :
    • Deewan-e-Natiq

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