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अब और चलने का इस दिल में हौसला ही न था

असलम अंसारी

अब और चलने का इस दिल में हौसला ही न था

असलम अंसारी

MORE BYअसलम अंसारी

    अब और चलने का इस दिल में हौसला ही था

    कि शहर-ए-शब में उजाले का शाइबा ही था

    मैं उस गली में गया ले के ज़ोम-ए-रुस्वाई

    मगर मुझे तो वहाँ कोई जानता ही था

    गुदाज़-ए-जाँ से लिया मैं ने फिर ग़ज़ल का सुराग़

    कि ये चराग़ तो जैसे कभी बुझा ही था

    कोई पुकारे किसी को तो ख़ुद ही खो जाए

    हुआ तो है मगर ऐसा कभी सुना ही था

    किसे कहें कि रिफ़ाक़त का दाग़ है दिल पर

    बिछड़ने वाला तो खुल कर कभी मिला ही था

    मुसाफ़िरों को कई वाहिमे सताते हैं

    ठहरते क्या कि दरीचों में तो दिया ही था

    दमक उठा था वो चेहरा हया की चादर में

    कि जैसे जुर्म-ए-वफ़ा उस का मुद्दआ ही था

    हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए

    कि साहिलों पे सितारा कोई रहा ही था

    स्रोत :
    • पुस्तक : Funoon (Monthly) (पृष्ठ 437)
    • रचनाकार : Ahmad Nadeem Qasmi
    • प्रकाशन : 4 Maklood Road, Lahore (25Edition Nov. Dec. 1986)
    • संस्करण : 25Edition Nov. Dec. 1986

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