आप ही अपना सफ़र दुश्वार-तर मैं ने किया
आप ही अपना सफ़र दुश्वार-तर मैं ने किया
क्यूँ मलाल-ए-फुर्क़त-ए-दीवार-ओ-दर मैं ने किया
मेरे क़द को नापना है तो ज़रा इस पर नज़र
चोटियाँ ऊँची थीं कितनी जिन को सर मैं ने किया
चल दिया मंज़िल की जानिब कारवाँ मेरे बग़ैर
अपने ही शौक़-ए-सफ़र को हम-सफ़र मैं ने किया
मंज़िलें देती न थीं पहले मुझे अपना सुराग़
फिर जुनूँ में मंज़िलों को रहगुज़र मैं ने किया
हर क़दम कितने ही दरवाज़े खुले मेरे लिए
जाने क्या सोचा कि ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया
लफ़्ज़ भी जिस अहद में खो बैठे अपना ए'तिबार
ख़ामुशी को इस में कितना मो'तबर मैं ने किया
ज़िंदगी तरतीब तो देती रही मुझ को 'नसीम'
अपना शीराज़ा मगर ख़ुद मुन्तशर मैं ने किया
- पुस्तक : AURAAQ (पृष्ठ 251)
- रचनाकार : Wazir Agha, Sajjad Naqvi
- प्रकाशन : Auraaq Chauk, Urdu Bazar, Lahore (April, May 1982)
- संस्करण : April, May 1982
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