इन्सान वो वाहिद हैवान है जो अपना ज़हर दिल में रखता है।
आदमी या तो आदमी है वरना आदमी नहीं है, गधा है, मकान है, मेज़ है, या और कोई चीज़ है।
मैं सोचता हूँ अगर बंदर से इन्सान बन कर हम इतनी क़यामतें ढा सकते हैं, इस क़दर फ़ित्ने बरपा कर सकते हैं तो वापिस बंदर बन कर हम ख़ुदा मालूम क्या कुछ कर सकते हैं।
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बंदर में हमें इसके इलावा और कोई ऐब नज़र नहीं आता कि वो इन्सान का जद्द-ए-आला है।