प्रेम की चूड़ियाँ
नूरपुर गंगा जी के किनारे इलाहाबाद के ज़िले में एक छोटा सा गाँव है। पंडित गिरधारी लाल उस गाँव के ज़मींदार थे। रामा शंकर उनका इकलौता लड़का था। खेती-बाड़ी में बड़ी बरकत थी। घर में ग़ल्ले का अंबार लगा रहता था। किसी बात की कमी न थी। पंडित राम लाल का लड़का राम जियावन ज़ात का ब्रह्मण था। किसी ज़माने में उसके ख़ानदान में भी लक्ष्मी देवी का राज था। लेकिन ग़दर में उनका ख़ानदान तबाह हो गया। जब उसने होश संभाला तो वो यतीम था। पंडित गिरधारी लाल ने उसकी परवरिश की और बड़े होते ही अपने यहाँ प्यादों में नौकर रख लिया। राम जियावन बड़ा कसरती पहलवान था। गो उसकी उम्र 40 साल से कुछ ज़ियादा हो गई थी फिर भी नूरपुर का तो क्या ज़िक्र आस-पास के गाँव में भी उसकी जोड़ का कोई दूसरा पहलवान न था। पंडित गिरधारी लाल के यहाँ चार रूपया माहवार तनख़्वाह मिलती थी। हर फ़सल पर दस-बारह मन अनाज भी मिल जाता था। घर में एक अच्छी ज़ात की गाय थी उसके लिए भूसा आसामियों से मिल जाता था। जब पंडित राम जियावन अखाड़े में डंड पेल कर सुबह को अपनी गाय का ताज़ा दूध पी कर लंबी पगड़ी बाँधे हुए और इलाहाबादी मोटी लाठी कंधे पर रख कर गाँव में आसामियों से लगान वसूल करने चलते तो रोब छा जाता जो काम किसी और प्यादा से न होता तो उसे राम जियावन महराज के सुपुर्द किया जाता। घर में उनकी बीवी दुर्गा और एक लड़की प्रेम प्यारी के सिवा और कोई न था।
राम शंकर और प्रेम प्यारी में एक साल की छोटाई-बड़ाई थी। रामा शंकर की पैदाइश के एक साल के बाद राम जियावन महराज के घर में लड़की पैदा हुई तो रामा शंकर की माँ तीया ने लड़की का नाम प्रेम प्यारी रखा। गाँव में ऐसे नाम कम रखे जाते हैं लेकिन ज़मींदारों का नाम रखा हुआ कैसे बदलता। फिर भी राम प्यारी को लोग प्यार में प्रेमा कहने लगे।
रामा शंकर और प्रेमा बचपन ही से एक जगह उठे-बैठे, खेले कूदे और गुरु जी के यहाँ एक साथ पढ़े। भला उनमें मोहब्बत क्यों न होती। सुबह के वक़्त ख़ाक-धूल में लत-पत होकर घरौंदे बनाना दोनों का एक निहायत पुर-लुत्फ़ खेल था। नूरपुर के पुर फ़िज़ा मैदान में गंगा जी के किनारे गुड़ियों का मेला लगता तो गुड़ियाँ अपने ससुराल जातीं। प्रेमा हाथ-पाँव में मेहंदी रचाती, अपनी गुड़ियों को गहने कपड़े से सजा कर बिदा करती। गंगा जी के किनारे जाती तो रामा भी साथ जाता और जब प्रेमा अपनी ख़ूबसूरत गुड़ियों को पानी में फेंकती तो रामा अपनी ख़ुश-रंग नीम की छड़ी से प्रेमा की गुड़ियों को पीटता और ख़ूब ख़ुश होता। बारहा ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि खेल ही खेल में दोनों में लड़ाई हुई, कोसा-काटा, मारा-पीटा और फिर थोड़ी देर में मिलाप हो गया। प्रेमा के रूठने पर रामा उसकी दिल जोई करता और जब रामा बिगड़ता तो प्रेमा उसको मना लेती। उसी तरह हँसी-ख़ुशी में बचपन का खेल ख़त्म हो गया और दोनों ने बहार उम्र के सुहाने सब्ज़ा-ज़ार में क़दम रखा। पंडित गिरधारी लाल के एक चचेरे भाई गुलज़ारी लाल इलाहाबाद में वकील थे। उन्हीं के पास रामा को अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेज दिया गया। इलाहाबाद जाने से पहले जब रामा प्रेमा से मिला तो प्रेमा ने कहा, रामा, देखो इलाहाबाद जाकर मुझे भूल न जाना।
प्रेमा तेरा किधर ख़्याल है, मैं तुझे भूल सकता हूँ। मैं जब इलाहाबाद से आऊँगा तो तेरे लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाऊँगा। इलाहाबाद से कब आओगे। महीने में एक मर्तबा ज़रूर आऊँगा।
जब रामा रुख़्सत होने लगा तो उसने देखा कि प्रेमा की कंवल की सी आँखों में आँसू भर आए हैं उसने कहा प्रेमा तू रोती क्यों है। प्रेमा ने उसका कोई जवाब न दिया। उसने जल्दी से अपने आँचल से आँसू पोंछ डाले और बग़ैर कुछ कहे सुने अपने घर के अंदर भाग गई।
रामा जब नूरपुर ऐसे छोटे गाँव से निकल कर इलाहाबाद ऐसे बड़े शहर में पहुँचा तो उसकी आँखें खुल गईं। अपने चचा की आलीशान कोठी देख कर रामा की नज़र में अपने नूरपुर वाले कच्चे मकान की वक़्अत न रह गई। उसका इलाहाबाद में इतना जी लगा कि वो अर्सा तक नूरपुर न गया। अपने नए दोस्तों से मिल कर वो प्रेमा को भूल गया। उसके चचा ने उसके लिए कोट पतलून और अंग्रेज़ी जूता बनवा दिया। वो फ़िटन पर सवार होकर शाम को ख़ुसरो बाग़ की सैर करता। इधर तो रामा शहर की दिलचस्पियों में अपनी देहाती ज़िंदगी मह्व किए था और उधर नूरपुर में प्रेमा उसकी याद में तड़पती रहती थी। वो रोज़ शाम की ढ़लती हुई छाँव में अपने घर के सामने चबूतरे पर बैठ कर रामा की राह देखा करती। भंग वार धमनी के चहचहों से जो क़ुदरती राग पैदा होता वो एक लम्हा भर के लिए भी उसको मसरूर न कर सकता। बरसात के मौसम में जब काली-काली रातें सर पर होतीं बिजली चमकती बादल गरजता, मोर चिंघारते, झींगुर अलापते तो रामा की याद में प्रेमा की आँखें सावन भादों की तरह झड़ियाँ लगा लेतीं।
ख़ुदा-ख़ुदा करके गर्मियों की छुट्टियों में पूरे एक साल के बाद रामा इलाहाबाद से वापस हुआ। जिस वक़्त वह गाँव में पहुँचा दिन डूब रहा था और भैंसें चरागाह से वापस हो रही थीं। सूरज देवता की सुनहरी शुआओं में गायें रंगी हुई ऐसी मालूम होती थीं जैसे गंगा जी में चमकते हुए तारे। ग्वाले बिरहा गाते हुए चले आ रहे थे। कहीं-कहीं पर छोटे-छोटे बच्चे मिट्टी में खेल रहे थे। गाँव की बहुएँ घड़े लिए गंगा जी से पानी भरने जा रही थीं। उनमें से एक शोख़ और चँचल औरत ने घूँघट की ओट से रामा को देख कर अपनी एक सहेली से कहा, अरी! देख तो ये कौन क्रिस्टान का बच्चा आ गया है? उसकी सहेली ने ग़ौर से रामा को देख कर कहा, ये तो रामा है, क्या तू नहीं जानती ये हमारे ज़मींदार का लड़का है। अरे ये वही रामा है जो धोती-कुर्ता पहने गाँव के लड़कों के साथ खेलता फिरता था, मैंने बिल्कुल नहीं पहचाना था और पहचानती कैसे आज तो ये अंग्रेज़ी कपड़े पहन कर आया है।
देहाती ज़िंदगी में एक बिरादराना उन्स होता है जो शहरी ज़िंदगी में नहीं पाया जाता। गाँव के छोटे-बड़े, अमीर-ओ-ग़रीब सब उसी रिश्ते में बंधे रहते हैं। चुनाँचे रामा के आने की ख़बर पाकर जगदेव लोहार, फुल्ली बनिया, रमज़ान जोलाहा, जिगरवा धोबी, कालिका काछी, अधीन अहीर, राम जियावन महाराज वग़ैरा रामा को देखने आए और दुआ दे कर चले गए।
गाँव में बैठ कर रामा को प्रेमा की याद आई। रात तो किसी तरह से उसने बसर की लेकिन सुबह उठते ही वो उसके मकान पर पहुँचा। राम जियावन गंगा अश्नान करने गए हुए थे। दुर्गा धान कूट रही थी, रामा ने कहा, मौसी! प्रणाम।
कौन! रामा! जीते रहो भैया, भगवान तुम्हें बनाए रखें, आओ-आओ अच्छे तो रहे, ये कहती हुई दुर्गा ने आवाज़ दी, प्रेमा! अरे ओ प्रेमा। देख तेरे रामा बाबू आए हैं। इनको बैठने के लिए कुछ आसन तो दे। प्रेमा चौके में दूध गर्म कर रही थी माँ की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से उठी और एक खटोला लाकर बिछा दिया। रामा को ख़्याल था कि प्रेमा सामने आते ही ख़ूब घुल-मिल कर बातें करेगी। उससे इलाहाबाद का हाल पूछेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रेमा बदन चुराए आँखें नीची किए हुए आई और खटोला बिछा कर फिर चौके में वापस चली गई। रामा ने दुर्गा से कहा, मौसी! प्रेमा भाग क्यों गई, मुझसे बातें क्यों नहीं करती।
दुर्गा ने चिल्लाकर कहा, प्रेमा कहाँ चली गई, ज़रा एक ग्लास दूध और मलाई तो डाल कर भैया को खिला दे (हँस कर) प्रेमा बड़ी पगली है तुमको जो साल भर के बाद देखा तो सामने आते हुए शर्माती है। देहाती लड़कियाँ बड़ी ना-समझ होती हैं। रामा। मौसी मैं भी तो देहाती हूँ। दुर्गा, भैया तुम्हारी और बात है, तुम्हारा और प्रेमा क़ा मुक़ाबला ही क्या। तुम पढ़े-लिखे हो, लेकिन प्रेमा तो बिल्कुल गँवार है। बस वही तुम्हारे साथ गुरु जी से कुछ हिन्दी किताबें पढ़ी थीं, क्या इतने ही से वो समझदार हो गई। नहीं भैया नहीं, वो बड़ी जाहिल है। देखो न कई मर्तबा पुकार चुकी हूँ लेकिन अभी तक दूध लेकर नहीं आई।
रामा ने उठ कर कहा, अच्छा तो मौसी मैं ख़ुद ही उसके पास जाता हूँ। देखूँ तो वो मुझसे क्यों नहीं बोलती है। ये कहता हुआ रामा चौके में घुसा और दुर्गा हँस-हँस कर लोट गई। हाँ भैया हाँ, तू ज़रूर प्रेमा को ठीक बनाएगा। ये कहते हुए दुर्गा ने फिर अपना मूसल उठाया और धान कूटने लगी। जब रामा चौके में पहुँचा तो उसने देखा कि प्रेमा एक ग्लास में दूध लिए हुए सर झुकाए चुपचाप खड़ी है। रामा ने हँस कर कहा, ओहो, ऐसा मालूम होता है गोया मुझे पहचानती ही नहीं। कहो अच्छी तो रहीं। प्रेमा ने दूध से भरा हुआ ग्लास और एक लुटिया में जल भर कर रामा के सामने रख दिया और फिर दीवार का सहारा लेकर एक तरफ़ को चुपचाप खड़ी हो गई। लेकिन कन-अंखियों से रामा को देखती जाती थी। रामा ने कहा, न-न प्रेमा इस तरह से काम नहीं चलेगा, जब तक तुम न बोलोगी मैं तुम्हारे यहाँ कोई चीज़ न खाऊँगा। थोड़ी देर इंतिज़ार करके जब रामा ने देखा कि इसका भी कोई जवाब प्रेमा ने नहीं दिया तो उसने उदास होकर कहा, अच्छा प्रेमा न बोलो। जब तुम मेरी बात का जवाब नहीं देतीं तो मैं अब जाता हूँ। ये कहता हुआ रामा उठ खड़ा हुआ। उस वक़्त लजाई हुई प्रेमा ने एक अजीब अंदाज़ से कसमसाकर धीमी आवाज़ में कहा, हाय रामा, तुम तो न जाने क्या कहते हो। रामा खिलखिला कर हँस पड़ा। प्रेमा की आवाज़ ने उसका ग़ुन्चा-ए-दिल खिला दिया। अब उसने दूध पी लिया और हँसता हुआ चौके से बाहर निकल कर कहने लगा मौसी, आख़िरकार मैंने प्रेमा से बातचीत कर ही ली। उसकी ज़िद मैंने तोड़ दी। दुर्गा ने ख़ुश होकर कहा वो तुम्हारे साथ बचपन से खेलती आई है कहाँ तक शर्मा सकती है।
घर से बाहर निकलते हुए रामा ने कहा, ओहो मैं एक बात भूल ही गया मौसी, ये देखो प्रेमा के लिए एक जोड़ा चूड़ियों का लाया हूँ। प्रेमा को दे देना। चूड़ियों को देख कर दुर्गा बहुत ख़ुश हुई। चूड़ियाँ थीं तो काँच की लेकिन इस क़िस्म की क़ीमती और ख़ूबसूरत चूड़ियाँ उस वक़्त तक गाँव में किसी को नसीब न हुई थीं।
दुर्गा के बुलाने पर प्रेमा चौके से बाहर निकली। देख रामा तेरे लिए कितनी ख़ूबसूरत चूड़ियाँ लाया है। ये कहते हुए दुर्गा ने चूड़ियाँ प्रेमा की तरफ़ बढ़ाईं। प्रेमा ने काँपते हुए हाथों से उनको लिया और दुज़दीदा निगाहों से रामा की तरफ़ देखा। ज़बान से तो उसने कुछ न कहा लेकिन शर्मीली आँखों ने सवाल किया, क्यों जी! ये चूड़ियाँ काँच की हैं या प्रेम की? रामा ने भी उसका मतलब समझ लिया और इशारों में जवाब दिया, ये प्रेम की चूड़ियाँ हैं।
आसमान ने करवट ली, ज़मीन ने मौसम पलटे और देखते ही देखते 5 बरस गुज़र गए। इस दौरान में पंडित गिरधारी लाल और महाराज राम जियावन बैकुंठ सिधारे। रामा अब एक वजीह लहीम शहीम जवान था। उसकी तालीम का सिलसिला मुंक़तअ हो गया और उसने अपनी ज़मीन-दारी का काम संभाला। लेन-देन बही खाता उसके हाथ में आया तो उसके मिज़ाज में रऊनत पैदा हो गई। सब नशों से ज़ियादा तेज़ ज़ियादा क़ातिल सरवत का नशा है। रामा उस नशे में बे-ख़ुद हो गया और अपने कारोबार में इतना मुनहमिक हुआ कि वो लड़कपन की मोहब्बत को प्रेमा के प्रेम को राम जियावन महाराज की वफ़ादारी को बिल्कुल भूल गया। उसने एक दिन भी भूले से भी ख़बर न ली कि यतीम प्रेमा और दुखिया दुर्गा की कैसी गुज़र रही है।
राम जियावन महाराज के कोई जायदाद तो थी नहीं जिससे दुर्गा की चैन से बसर होती। महाराज के मरने पर दस-बीस रूपये घर में थे वो भी उन्हीं की क्रिया-क्रम में ख़त्म हो गए। सिर्फ़ एक गाय घर में थी माँ-बेटी की ज़िंदगी का अब एक यही सहारा था। उसका दूध बेच कर इनकी बसर औक़ात होती। कभी-कभी फ़ाक़े भी करना पड़ते। उसी हालत में एक दिन दुर्गा ने प्रेमा से कहा, जी में आता है कि अपनी मुसीबत का हाल रामा बाबू से जाकर कहूँ, क्या वो ऐसी हालत में हमारी मदद न करेंगे।
प्रेमा ने उदास होकर जवाब दिया, नहीं अम्माँ उनके पास जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्यों? जब उनको ख़ुद ख़्याल नहीं है तो हमारे कहने से क्या होगा। एक दिन कह कर तो देखूँ, मुझे तो पूरी उम्मीद है कि वो हमारी ग़रीबी पर रहम करेंगे। क्या तेरे बाप का भी उनको कुछ ख़्याल न होगा। महाराज का ज़िक्र करते हुए दोनों की आँखों में आँसू भर आए। थोड़ी देर तक दोनों ख़ूब जी भर के रोईं जब कुछ जी हल्का हुआ तो दुर्गा ने कहा, बेटी तू सच कहती है मैं किसी के पास न जाऊँगी। जब इनके जीते जी मैंने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, तो अब उनके मरने पर भीक माँग कर उनकी आत्मा को दुख न पहुँचाऊँगी। उसके बाद फिर दोनों में इस क़िस्म की बातें कभी नहीं हुईं। एक मर्तबा रामा की माँ तुलसी ने दुर्गा को अनाज भेजा भी लेकिन उसने लेने से इनकार कर दिया।
साल भर तक जिस तरह भी हो सका दुर्गा ने दिन काटे। फटे पुराने कपड़ों को सी कर किसी तरह काम चलाया लेकिन बरसात में एक नई मुसीबत आई। उनका घर छाया न गया था, बरसात में कई दिन तक मूसलाधार पानी बरसा तो उनके मकान का एक हिस्सा गिर पड़ा। गाय वहाँ बंधी हुई थी, दब कर मर गई। इस नई मुसीबत ने उन परेशानियों में और इज़ाफ़ा कर दिया। घर में दो-चार चाँदी के जो ज़ेवर थे वो भी बिक गए। प्रेमा ने रामा की दी हुई चूड़ियाँ एक कपड़े में बाँध कर टपारी में रख दी थीं। रामा की यही एक यादगार थी। प्रेमा ने सोचा कि अगर वो इनको पहने रहेगी तो टूट जाएंगी। फ़िक्र-ए-मआश बड़ी बुरी बला है। दुर्गा अब खेतों और चरागाहों से गोबर उठा लाती, प्रेमा उपले थापती और दुर्गा गाँव में बेच लाती। कभी गोबर न मिलता तो और मुसीबत होती। कभी कोई उपले चुरा ले जाता तो फ़ाक़े करने पड़ते। दुनिया का भी अजीब हाल है। कोई हँस रहा है कोई रो रहा है। किसी का घर भरा हुआ है खाने वाले नहीं, कोई रो-रो कर ज़िंदगी काटता है लेकिन उसका कोई पुरसान-ए-हाल नहीं।
रामा की बीसवीं सालगिरह का दिन था। दरवाज़े पर मर्दों और घर में औरतों का हुजूम था। एक तरफ़ घी की और दूसरी तरफ़ तेल की पूरियाँ पक रही थीं। घी की मोअज़्ज़िज़ मोटे ब्रह्मणों के लिए, तेल की फ़ाक़ा-कश नीचों के लिए। रामा का घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू से महक रहा था। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे ख़ुश हो-हो कर दौड़ते फिर रहे थे। मालिन फूलों का गजरा केले की शाख़ें लाई। कुम्हार नए-नए चराग़ लाए और हाँडिया दे गए। बारी सर-सब्ज़ ढ़ाक के पत्तल और दोने दिए गए। कुम्हार ने आकर कलसा में पानी भरा। बढ़ई ने रामा के लिए नई पीढ़ी बनाई। नाइन ने आँगन लीपा और चौक बनाई। रामा जब नहा-धोकर अपने नए कपड़े पहन कर तैयार हो गया तो एक पंडित जी खड़ाऊँ खट-पट करते विराजमान हुए। रामा को पीढ़ी पर खड़ा करके अश्लोक पढ़ा, एक कच्चा धागा सर से पाँव तक नाप कर बीसवीं गिरह लगाई। तिल मिला हुआ कच्चा दूध पिलाया। माथे पर तिलक लगाकर गले में फूलों का हार डाल कर आशीर्वाद दी। पंडित जी भला चौक से ख़ाली हाथ कैसे उठते। उनका पेट बहुत बड़ा और ख़ूब फूला हुआ था। तुलसी ने भी उस मौक़े पर पंडित जी को ख़ूब दक्षिना दी और पंडित जी हँसी-ख़ुशी घर से रुख़सत हुए। उनके बाद नाई, धोबी, भाट, कुम्हार, माली वग़ैरा की बारी आई और उनको भी इनाम से ख़ुश कर दिया गया। ग़रज़ उस दिन नूरपुर में सिवाए दुर्गा और प्रेमा के कोई और रामा की चश्म-ए-इनायत से महरूम न रहा।
उधर तो जश्न का ये सामान था और इधर ग़रीब दुर्गा के यहाँ फ़ाक़ा था, क्योंकि सरवत के नशे में सरशार ज़मींदार अपने उस ग़रीब आसामी को न्योता देना भूल गया था। शाम को जब सब लोग खा-पी कर चले गए तो इत्तिफ़ाक़न प्रेमा की याद आई और उसने अपनी माँ से जाकर पूछा माँ जी क्या राम जियावन महाराज के यहाँ से कोई नहीं आया था। तुलसी, नहीं तो, क्या तुमने उनको न्योता नहीं दिया था।
रामा: क्या वो बग़ैर न्योता के नहीं आ सकती थीं, वो हमारे आसामी हैं।
तुलसी: असामी होने से क्या होता है। महाराज के घर की अकड़ तो सारे गाँव में मशहूर है। अभी थोड़े दिन हुए मैंने दो मन अनाज भेजा था, लेकिन दुर्गा ने वापस कर दिया। वो औरत अपने को न जाने क्या समझती है। जब तक महाराज ज़िंदा रहे उनका आना-जाना रहा, उनके मरते ही उसने मेरे यहाँ आना छोड़ दिया। भला बग़ैर न्योता वो हमारे यहाँ क्यों आने लगी।
रामा चुपचाप अपनी माँ की बातें सुनता रहा। उसके बाद बोला, ख़ैर दुर्गा नहीं आई तो इससे हमारा कोई नुक़सान नहीं हुआ। मुझे एक थाली में कुछ सीधा दे दो मैं उसको जाकर दे आऊँ।
तुलसी: जब तुम्हारी यही मर्ज़ी है तो मैं कल सीधा किसी के हाथ भिजवा दूँगी। तुम्हारे जाने की वहाँ क्या ज़रूरत है। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे, तुम ख़ुद सीधा लेकर जाओगे तो दुर्गा के और मिज़ाज बढ़ जाएंगे।
लेकिन रामा ने माँ का कहना न माना। उस वक़्त उसके सामने उसका गुज़रा हुआ ज़माना था। प्रेमा की बचपन की बे-लौस मोहब्बत उसके दिल में चुटकियाँ ले रही थीं। उसने तुलसी से सीधे की थाली मँगवाई और उसी वक़्त दुर्गा के दरवाज़े पर पहुँच कर आवाज़ दी। दुर्गा ने दरवाज़ा खोल कर कहा। कौन? रामा ने जवाब दिया, मैं हूँ रामा!
हमारे धन भाग आईए अंदर आईए, कहिए आज इस तरफ़ मालिक कैसे भूल कर आ गए। रामा के दिल पर चोट सी लगी, उसने शर्मिंदा होकर कहा, ईश्वर जानता है कि घर के कारोबार में ऐसा फँसा रहता हूँ कि किसी वक़्त फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। उसका कुछ जवाब न दे कर दुर्गा ने प्रेमा को आवाज़ दी। बेटी ज़रा दीया जिला दे। मालिक अंधेरे में खड़े हैं। प्रेमा एक तरफ़ कोने में मैली कुचैली धोती ओढ़े पड़ी थी। आज उसकी तबियत कुछ ख़राब थी। माँ की आवाज़ सुन कर वो उठी और आहिस्ते से कहा, माँ जी दीया में तेल नहीं है। उसकी आवाज़ में हसरत भरी थी, गो प्रेमा को रामा ने न देखा लेकिन उसकी आवाज़ सुन ली और कहा, दीया जलाने की कोई ज़रूरत नहीं है, मैं अब जा रहा हूँ। माँ जी ने तुम्हारे लिए इस थाली में कुछ भेजा है। ये कह कर रामा ने थाली बढ़ाई। लेकिन दुर्गा पीछे हट गई। उसने अपने को संभाल कर कहा, मालिक, हम इसके भूके नहीं हैं। ये सूखा जवाब सुन कर रामा सन्नाटे में आ गया। ग़रीबों में भी ख़ुद्दारी का माद्दा होता है, ये उसको मालूम न था।
एक ग़रीब ब्रह्मणी ने उसको ज़लील किया। इसका उसको सख़्त सदमा हुआ और वो सीधे की थाली लेकर दुर्गा के घर से निकल कर अपने घर वापस आ गया। रामा के जाने के बाद प्रेमा ने अपनी माँ से कहा, मालूम होता है बाबू जी नाराज़ हो गए हैं। दुर्गा ने जवाब दिया, भगवान राज़ी रहें किसी की नाराज़गी की कुछ परवाह नहीं है।
प्रेमा अब उन्नीसवीं साल में थी। उसकी जवानी का चाँद बड़ी आब-ओ-ताब से चमक रहा था। हुस्न-ओ-रानाई की तमाम ख़ूबियाँ क़ुदरत ने फ़य्याज़ी से प्रेमा को अता की थीं। उसके अंदाज़ में भोलापन आवाज़ में नग़मा की दिल-फ़रेबी, आँखों में हया और ख़्यालात में पाकीज़गी थी। लेकिन इन सब ख़ूबियों के होते हुए भी अब तक उसकी शादी नहीं हुई थी। ग़रीब की जवानी जाड़ों की चाँदनी थी, कोई क़द्र दान न था। इसकी वजह ये थी कि वो एक ग़रीब ब्रह्मण की लड़की थी। दान दहेज़ देने के लिए दुर्गा के पास कुछ न था। जवान-जहान लड़की को देख कर उसके गले में पानी न उतरता था। दो-चार जगह उसने निस्बत का पयाम भी दिया लेकिन कोई दो सौ से कम दान लेने पर राज़ी न हुआ। दो सौ रूपया तो बहुत होते हैं। घर में इतने खपरैल भी न रहे होंगे। दुर्गा गाँव में जिस तरफ़ निकलती लोग उसको सुना-सुना कर कहते, जवान लड़की घर में बिठा रखी है, ब्याह नहीं करती, न जाने क्या इरादा है। दुर्गा लोगों के ताने सुन कर शर्म के मारे पानी-पानी हो जाती। इसलिए गाँव में उपले बेचना बंद कर दिए। एक दूसरे गाँव में उपले जाकर बेचने लगी। वहाँ भी कुछ दिनों बाद लोगों ने दुर्गा को दिक़ करना शुरू कर दिया। बेचारी की जान बड़ी मुसीबत में थी। कभी सोचती गंगा जी में डूब कर अपनी जान दे दे, लेकिन जब प्रेमा का ख़्याल आता तो अपने इरादे से बाज़ आ जाती। अब दुर्गा दिन-रात उसी फ़िक्र में रंजीदा रहने लगी। बसा औक़ात वो प्रेमा पर भी ख़्वाह-मख़ाह ख़फ़ा हो जाती। ज़रा सी बात पर झिड़क देती। उसपर अगर प्रेमा रोने लगती तो ख़ुद भी उसके साथ रोती। एक दूसरे के दिल का हाल जानती थी लेकिन ज़बान पर न ला सकती थी। इस तरह दिन गुज़र रहे थे। एक दिन दुर्गा की एक सहेली गौरा उससे मिलने आई तो उसने कहा, जीजी प्रेमा का ब्याह कब करोगी, लड़की बहुत सियानी हो गई है, इसको कुंवारी बैठा रखना बड़े शर्म की बात है। गाँव भर में तुम्हारी बड़ी बदनामी हो रही है। दुर्गा ने ठंडी साँस भर कर कहा, बहन क्या बताऊँ, बहुत तलाश करने पर भी अब तक कोई बर नहीं मिला।
गौरा: ये तो मुझे भी मालूम है लेकिन ख़ामोश रहने से तो काम न चलेगा। मेरे ख़्याल में तुमको अब देरी नहीं करनी चाहिए।
दुर्गा: बहन तुम्हें प्रेमा को कहीं ठिकाने से लगा दो, बड़ी कृपा होगी।
गौरा ने कहा, अच्छा मैं देखूँगी। ये कह कर गौरा चली गई। दो-चार दिन बाद वो फिर आई। उसने आते ही दुर्गा से कहा, जीजी मिठाई खिलाओ, मैंने प्रेमा के लिए बर ढूंढ लिया है। दुर्गा ने ख़ुश हो कर कहा, कहाँ?
गौरा: महाराज बंसी धर को तो जानती हो।
दुर्गा: वही ना जो अमरिछ में रहते हैं।
गौरा: हाँ-हाँ, वही-वही।
दुर्गा: उनकी तो उम्र बहुत ज़ियादा है। वो अब शादी क्यों कर रहे हैं?
गौरा: उम्र ज़रूर ज़ियादा है लेकिन इससे क्या होता है। वो मर्द हैं। उनकी उम्र का कौन ख़्याल करता है। उनकी जितनी उम्र है इस उम्र में तो बहुत से लोग ब्याह करते हैं और जीजी बुरा न मानो तो कहूँ तुम्हारी लड़की भी बहुत सयानी है। बर बिल्कुल छोकरा होने से भी तो काम नहीं चलेगा। मेरा कहना मानो तुम इस मौक़े को हाथ से न जाने दो। बड़े अमीर हैं। बीस-पच्चीस बीघे मौरूसी काश्त-कारी है। तालाब बाग़ सब ही कुछ तो है और सबसे अच्छी बात तो ये है कि वो कुछ दान दहेज़ भी न लेंगे। कहो मंज़ूर है कि नहीं।
दुर्गा बंसीधर के साथ प्रेमा का ब्याह करने के लिए कभी राज़ी न होती लेकिन जब उसने सुना कि दान दहेज़ भी न देना पड़ेगा तो वो मजबूरन राज़ी हो गई।
गौरा: एक बात और है वो ये कि कल कुछ औरतें महाराज बंसीधर के यहाँ से प्रेमा को देखने आएंगे।
दुर्गा: बहन ऐसा तो मेरे यहाँ कभी नहीं हुआ। मेरा मैका खागा में है। वहाँ जब तक ब्याह नहीं हो लेता ससुराल वाले लड़की को नहीं देख सकते।
गौरा: ख़ैर तुम एक काम करो। कल सवेरे प्रेमा को नहला कर साफ़ कपड़े पहना देना। अमरिछ से जब औरतें मेरे यहाँ आएंगी, मैं किसी बहाने से प्रेमा को अपने घर बुला ले जाऊँगी। इस तरह वो प्रेमा को देख लेंगी, इसमें कोई हर्ज न होगा। दुर्गा ने ख़ुश हो कर कहा, हाँ, ये तरकीब तो ठीक है।
अच्छा तो अब मैं जाती हूँ। ये कह कर गौरा अपने घर चली गई। दुर्गा आज बहुत ख़ुश थी। उसने अपनी पिटारी खोल कर एक फटी-पुरानी धोती और श्लोका निकाल कर धोया और उसकी मरम्मत कर दी। सुबह गौरा से ये सब बातें हुईं और शाम तक गाँव भर में इसकी ख़बर हो गई। जिस किसी ने भी सुना कि दुर्गा अपनी फूल सी लड़की का ब्याह बूढ़े खूसट बंसीधर से करने वाली है उसने अफ़सोस किया। लेकिन दुर्गा ने किसी के कहने सुनने की कुछ परवाह न की। उसको इसके सिवाए कुछ ख़्याल ही न था कि जिस तरह भी हो प्रेमा का ब्याह हो जाए और दान दहेज़ न देना पड़े। बदनामी होगी तो क्या अपने फ़र्ज़ से सुबुक-दोश तो हो जाएगी। प्रेमा से भी कोई बात छुपी न रही। सब कुछ जान-बूझ कर भी वो कह ही क्या सकती थी। वो दर्द-ए-सर का बहाना करके शाम से लेट रही और चुपके-चुपके सारी रात आँसू बहाती रही।
सुबह-ए-काज़िब का वक़्त था। चाँद धुँधली-धुँधली रौशनी डाल रहा था। दुर्गा ने प्रेमा को बुलाकर कहा, बेटा जल्दी से उठ और गंगा माई में अश्नान कर आ। ले ये श्लोका और धोती इसको नहाकर पहन लेना। हाँ ख़ूब याद आया, ज़रा ठहर जा। दुर्गा ने अपनी पिटारी खोली और उसमें से रामा की दी हुई काँच की चूड़ियाँ निकालीं और बोली, तेरे बदन पर कोई ज़ेवर नहीं है, मैं अब तुझे बनवा दूँगी। आज तो ये चूड़ियाँ पहन ले। ये भी बहुत ख़ूबसूरत और क़ीमती हैं। प्रेमा अब तक ख़ामोश सर झुकाए बैठी थी, चूड़ियों को देख कर यक-बारगी चिल्ला उठी, नहीं माँ, नहीं,मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, मैं इन चूड़ियों को नहीं पहनूँगी। दुर्गा ने डाँट कर कहा, पहनेगी कैसे नहीं, बस तुझमें यही तो एक बड़ा ऐब है कि कहना नहीं मानती। ये कह कर दुर्गा ने ज़बरदस्ती चूड़ियाँ पहना दीं। प्रेमा को नहाने के लिए भेज कर आप किसी दूसरे काम में लग गई। आज ही अमरिछ से औरतें प्रेमा को देखने आएंगी। दुर्गा को जल्दी थी, जिस क़दर जल्द मुमकिन हो प्रेमा नहा-धोकर फ़ारिग़ हो जाए। प्रेमा जब घर से निकली तो उस वक़्त भी अंधेरा था। वो आहिस्ता-आहिस्ता कुछ सोचती हुई दरिया के किनारे पहुँची। सितारों की मद्धम रौशनी के अक्स से दरिया का बा'ज़-बा'ज़ हिस्सा साँप की केचुली की तरह जग-मग जग-मग कर रहा था। तमाम दुनिया सुनसान थी। दरिया के किनारे प्रेमा ने धोती और श्लोका एक तरफ़ फेंक दिया। गंगा माई को हाथ जोड़ कर परणाम किया और बोली, माता! मैंने कौन सा पाप किया है जो सबकी आँखों में काँटा बन रही हूँ। क्या मेरे लिए दुनिया में कहीं ठिकाना नहीं है जो मेरी माँ मुझे आग में झोंकने के लिए तैयार हो गई। माता! मेरे दिल में जिसकी मोहब्बत बचपन से थी वही मेरा न हुआ तो अब दुनिया में मुझे किसी से कुछ उम्मीद नहीं है।
माता! क्या तुम बता सकती हो कि रामा ने मुझे क्यों भुला दिया। माता! तुम जवाब क्यों नहीं देती हो। अच्छा मैं समझ गई, तुम कहती हो कि उनका नाम जपो। लेकिन मैं तो उनका नाम आज से नहीं बल्कि बाले-पन से जपती रही हूँ। फिर भी वो मेरे नहीं हुए। माँ! मैं धरती माता की पीठ का बोझ हो रही हूँ, तुम इस दुखिया को अपनी गोद में छुपा लो। मैं तुम्हारे सरन में आती हूँ। प्रेमा की फ़रियाद सुन कर चाँद की थिरकती हुई किरनें बालू पर लोटने लगीं और गंगा माई की लहरें अपना सर पटकने लगीं। प्रेमा आगे बढ़ी फिर कुछ सोच कर रुकी और अपने हाथों से चूड़ियाँ उतार डालीं और ये कह कर मैं तो प्रेम की चूड़ियाँ पहने हुए हूँ, इन काँच की चूड़ियों की ज़रूरत नहीं। उनको तोड़ कर एक तरफ़ ज़मीन पर फेंक दिया। जिन चूड़ियों को वो कभी अपने जान-ओ-दिल से भी ज़ियादा अज़ीज़ समझती थी उन्हीं चूड़ियों को आज उसने ख़ुद अपने हाथों से तोड़ डाला और पानी में एक क़दम बढ़ाया। ठीक उसी वक़्त किसी की आवाज़ सुनाई दी।
प्रेमा! प्रेमा! ठहरो। मुझसे ग़लती हुई। मुझसे भूल हुई तुम मुझे माफ़ कर दो। तुम मेरी ग़लती की सज़ा तुम्हारा जो जी चाहे दे सकती हो लेकिन जो कुछ तुम करने जा रही हो ये सज़ा मेरे लिए नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होगी। प्रेमा ज़ोर और ताक़त से काँच की चूड़ियाँ तोड़ी जा सकती हैं लेकिन प्रेम का बंधन प्रेम की चूड़ियों का तअल्लुक़ कभी टूटने वाला नहीं। उसके तोड़ने की ताक़त न तुम में है और न मुझ में है। प्रेमा जो मैं नहीं कर सका उसको तुम भी न कर सकतीं। ये रामा की आवाज़ थी जो इत्तिफ़ाक़न उस वक़्त गंगा अश्नान करने के लिए वहाँ आ गया था। उसने प्रेमा की फ़रियाद सुनी। प्रेमा का ख़ूबसूरत चेहरा देखा, प्रेम की चूड़ियाँ तोड़ते और उनको फेंकते देखा, उसने आगे बढ़ कर टूटी हुई चूड़ियों को उठा लिया। साबित रहने पर भी जिनकी उसने कभी क़दर न की थी मामूली काँच की चूड़ियाँ आज टुकड़े-टुकड़े होकर उसके दिल पर तीर-ओ-नश्तर का काम कर गईं। दिल की गहराइयों में ख़्वाबीदा मोहब्बत ने एक करवट ली। बचपन की मोहब्बत ने ज़ोर मारा और क़ब्ल इसके कि प्रेमा अपनी चाँद सी सूरत को गंगा माई की लहरों में छुपा ले, रामा ने फुर्ती के साथ आगे बढ़ कर प्रेमा को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर पानी से बाहर निकाल लिया। जिस तरह हवा के झोंके से दरख़्त का एक-एक पत्ता काँपने लगता है उसी तरह रामा ने जब प्रेमा की बाँह पकड़ी तो जोश-ए-मोहब्बत से प्रेमा का एक-एक उज़्व काँप उठा और वो रामा के चरणों में झुक गई। मोहब्बत के आँसू दोनों की आँखों से बह निकले। उस वक़्त बाद-ए-सहर मस्ती से झूमने लगी, तारे ग़ायब हो गए और सुबह हो गई। रंज-ओ-ग़म का कहीं निशान भी न रहा।
कुछ दिनों के बाद अच्छी साअत में रामा ने प्रेमा के साथ बड़ी धूम-धाम के साथ ब्याह किया। दुर्गा इस मुबारक शादी के बाद भी कई साल तक ज़िंदा रही लेकिन उस वज़अ्-दार और आन पर मरने वाली औरत ने अपनी झोंपड़ी छोड़ कर दामाद के यहाँ रहना कभी गवारा न किया।
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