Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

कारमन

MORE BYक़ुर्रतुलऐन हैदर

    स्टोरीलाइन

    अमीर ख़ानदान के एक नौजवान द्वारा एक ग़रीब लड़की के शोषण की एक रिवायती कहानी है, जो लड़की के निःस्वार्थ प्रेम की त्रासदी है। लेकिन इस कहानी में बेहद सादगी, दिलकशी और आकर्षण है। आख़िर में पाठक तो कहानी के अंजाम से परिचित हो जाता है, लेकिन कारमन नहीं हो पाती है। सच कहा जाए तो इसी में उसकी भलाई भी है।

    रात के ग्यारह बजे टैक्सी शहर की ख़ामोश सड़कों पर से गुज़रती एक पुरानी वज़ा’ के फाटक के सामने जाकर रुकी। ड्राईवर ने दरवाज़ा खोल कर बड़े यक़ीन के साथ मेरा सूटकेस उतार कर फ़ुट-पाथ पर रख दिया और पैसों के लिए हाथ फैलाए तो मुझे ज़रा अ'जीब सा लगा।

    “यही जगह है?”, मैंने शुबा से पूछा।

    “जी हाँ”, उसने इत्मीनान से जवाब दिया।

    मैं नीचे उत्तरी। टैक्सी गली के अँधेरे में ग़ाइब हो गई और मैं सुनसान फ़ुट-पाथ पर खड़ी रह गई। मैंने फाटक खोलने की कोशिश की मगर वो अंदर से बंद था। तब मैंने बड़े दरवाज़े में जो खिड़की लगती थी, उसे खटखटाया। कुछ देर बा'द खिड़की खुली। मैंने चोरों की तरह अंदर झाँका। अंदर नीम-तारीक आँगन था जिसके एक कोने में दो लड़कियाँ रात के कपड़ों में मलबूस आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रही थीं। आँगन के सिरे पर एक छोटी सी शिकस्ता इमारत इस्तादा थी। मुझे एक लम्हे के लिए घुसियारी मंडी लखनऊ का स्कूल याद गया, जहाँ से मैंने बनारस यूनीवर्सिटी का मैट्रिक पास किया था। मैंने पलट कर गली की तरफ़ देखा जहाँ मुकम्मल ख़ामोशी तारी थी। फ़र्ज़ कीजिए... मैंने अपने आपसे कहा कि ये जगह अफ़ीमचियों, बुर्दा-फ़रोशों और स्मगलरों का अड्डा निकली तो...? मैं एक अजनबी मुल्क के अजनबी शहर में रात के ग्यारह बजे एक गुमनाम इमारत का दरवाज़ा खटखटा रही थी जो घुसियारी मंडी के स्कूल से मिलता-जुलता था। एक लड़की खिड़की की तरफ़ आई।

    “गुड इवनिंग ये वाई.डब्लयू.सी.ए. है ना...?”, मैंने ज़रा इज्ज़ से मुस्कुरा कर पूछा... “मैंने तार दिलवा दिया था कि मेरे लिए एक कमरा रिज़र्व कर दिया जाए।”, मगर किस क़दर ख़स्ता-हाल वाई.डब्लयू.सी.ए. है ये। मैंने दिल में सोचा।

    “हमें आपका कोई तार नहीं मिला। और अफ़सोस है कि सारे कमरे घिरे हुए हैं।” अब दूसरी लड़की आगे बढ़ी…, “ये वर्किंग गर्ल्ज़ का होस्टल है। यहाँ आम तौर पर मुसाफ़िरों को नहीं ठहराया जाता”, उसने कहा। मैं यक-लख़्त बेहद घबरा गई... अब क्या होगा? मैं इस वक़्त यहाँ से कहाँ जाऊँगी...? दूसरी लड़की मेरी परेशानी देखकर ख़ुश-ख़ुल्क़ी से मुस्कुराई। “कोई बात नहीं। घबराओ मत... अंदर जाओ... लो इधर से आओ!”

    “मगर कमरा तो कोई ख़ाली नहीं है…”, मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “मेरे लिए जगह कहाँ होगी?”

    “हाँ हाँ, कोई बात नहीं। हम जगह बना देंगे। अब इस वक़्त आधी रात को तुम कहाँ जा सकती हो?” उसी लड़की ने जवाब दिया... मैं सूटकेस उठा कर खिड़की से अंदर आँगन में कूद गई। लड़की ने सूटकेस मुझसे ले लिया। इमारत की तरफ़ जाते हुए मैंने जल्दी जल्दी कहा, “बस आज की रात मुझे ठहर जाने दो। मैं कल सुब्ह अपने दोस्तों को फ़ोन कर दूँगी। मैं यहाँ तीन चार लोगों को जानती हूँ। तुमको बिल्कुल ज़हमत होगी।”

    “फ़िक्र मत करो”, उसने कहा। पहली लड़की शब-ब-ख़ैर कह कर ग़ाइब हो गई। हम सीढ़ियाँ चढ़ कर बरामदे में पहुँचे। बरामदे के एक कोने में लकड़ी की दीवारें लगा कर एक कमरा सा बना दिया गया था। लड़की सुर्ख़-फूलों वाला दबीज़ पर्दा उठा कर उसमें दाख़िल हुई। मैं उसके पीछे पीछे गई…, “यहाँ मैं रहती हूँ। तुम भी यहीं सो जाओ…”, उसने सूटकेस एक कुर्सी पर रख दिया और अलमारी में से साफ़ तौलिया और नया साबुन निकालने लगी। एक कोने में छोटे से पलंग पर मच्छर-दानी लगी थी। बराबर में सिंघार मेज़ रखी थी। और किताबों की अलमारी। जैसे कमरे सारी दुनिया में लड़कियों के हॉस्टलों में होते हैं... लड़की ने फ़ौरन दूसरी अलमारी में से चादर और कम्बल निकाल कर फ़र्श के घिसे हुए बद-रंग क़ालीन पर बिस्तर बिछाया और पलंग पर नई चादर लगा कर मच्छर-दानी के पर्दे गिरा दिए। “लो तुम्हारा बिस्तर तैयार है!”, मुझे बेहद नदामत हुई…, “सुनो मैं फ़र्श पर सो जाऊँगी।”

    “हरगिज़ नहीं। इतने मच्छर काटेंगे कि हालत तबाह हो जाएगी। हम लोग इन मच्छरों के आदी हैं। कपड़े बदल लो”, इतना कह कर वो इत्मीनान से फ़र्श पर बैठ गई...

    “मेरा नाम कारमन है। मैं एक दफ़्तर में मुलाज़िम हूँ और शाम को यूनीवर्सिटी में रिसर्च करती हूँ। कैमिस्ट्री मेरा मज़मून है। मैं वाई.डब्लयू. की सोशल सैक्रेटरी भी हूँ। अब तुम अपने मुतअ'ल्लिक़ बताओ?”, मैंने बताया…, “अब सो जाओ”, मुझे ऊँघते देखकर उसने कहा। फिर उसने दो ज़ानू झुक कर दुआ माँगी और फ़र्श पर लेट कर फ़ौरन सो गई।

    सुब्ह को इमारत जागी। लड़कियाँ सरों पर तौलिया लपेटे और हाऊस कोट पहने ग़ुस्ल-ख़ानों से निकल रही थीं। बरामदे में से गर्म क़हवे की ख़ुशबू रही थी। दो तीन लड़कियाँ आँगन में टहल-टहल कर दाँतों पर ब्रश कर थीं।

    “चलो तुम्हें ग़ुस्ल-ख़ाना दिखा दूँ”, कारमन ने मुझसे कहा, और हाल में से गुज़र कर एक गलियारे में ले गई जिसके सिरे पर एक टूटी-फूटी कोठरी सी थी जिसमें सिर्फ़ एक नल लगा हुआ था और दीवार पर एक खूँटी गड़ी थी। उसका फ़र्श उखड़ा हुआ था और दीवारों पर सीलन थी। रौशन-दान के उधर से किसी लड़की के गाने की आवाज़ रही थी। उस ग़ुस्ल-ख़ाने के अंदर खड़े हो कर मैंने सोचा। कैसी अ'जीब बात है... मुद्दतों से ये ग़ुस्ल-ख़ाना इस मुल्क में, इस शहर में, इस इमारत में अपनी जगह पर मौजूद है... और मेरे वजूद से बिल्कुल बे-ख़बर... और आज मैं इसमें मौजूद हूँ। कैसा बे-वक़ूफ़ी का ख़याल था।

    जब मैं नहा के बाहर निकली तो नीम-तारीक हाल में एक छोटी सी मेज़ पर मेरे लिए नाश्ता चुना जा चुका था। कई लड़कियाँ जमा हो गई थीं। कारमन ने उन सबसे मेरा तआ'रुफ़ कराया। बहुत जल्द हम सब पुराने दोस्तों की तरह क़हक़हे लगा रहे थे।

    “अब मैं ज़रा अपने जानने वालों को फ़ोन कर दूँ”, चाय ख़त्म करने के बा'द मैंने कहा। कारमन शरारत से मुस्कुराई…, “हाँ अब तुम अपने बड़े-बड़े मशहूर और अहम दोस्तों को फ़ोन करो, और उनके हाँ चली जाओ। तुम्हारी पर्वा कौन करता है। क्यों रोज़ा...?”

    “हम इसकी पर्वा करते हैं?”

    “बिल्कुल नहीं...”

    कोरस हुआ। लड़कियाँ मेज़ पर से उठीं…, “हम लोग अपने-अपने काम पर जा रहे हैं शाम को तुमसे मुलाक़ात होगी”, मैगदीनिया ने कहा। “शाम को... ?”, एमीलिया ने कहा…, “शाम को ये किसी कन्ट्री क्लब में बैठी होगी…।”

    कारमन के दफ़्तर जाने के बा'द मैंने बरामदे में जाकर फ़ोन करने शुरू’ किए... फ़ौज के मैडीकल चीफ़ मेजर जनरल कीमो गिल्डास जो जंग के ज़माने में मेरे मामूँ जान के रफ़ीक़-ए-कार रह चुके थे... मिसिज़ एंतोनिया कोस्टेलव, एक करोड़-पती कारोबारी की बीवी जो यहाँ की मशहूर समाजी लीडर थीं और जिनसे मैं किसी बैन-उल-अक़वामी कान्फ़्रैंस में मिली थी... अलफांसो वलबीरा... इस मुल्क का नामवर नावल निगार और जर्नलिस्ट, जो एक दफ़ा’ कराची आया था... “हलो...हलो... अरे... तुम कब आएँ... हमें इत्तिला क्यों नहीं दी...? कहाँ ठहरी हो...? वहाँ...? गुड-गॉड... वो कोई ठहरने की जगह है...? हम फ़ौरन तुम्हें लेने रहे हैं...।” उन सबने बारी बारी मुझसे यही अल्फ़ाज़ दोहराए। सबसे आख़िर में, मैंने डौन गार्सिया डील प्रेडोस को फ़ोन किया। ये मग़रिबी यूरोप के एक मुल्क में अपने देस के सफ़ीर रह चुके थे और वहीं उनसे और उनकी बीवी से मेरी अच्छी ख़ासी दोस्ती हो गई थी। उनके सैक्रेटरी ने बताया कि वो लोग आजकल पहाड़ पर गए हुए हैं। उसने मेरी काल उनके पहाड़ी महल में मुंतक़िल कर दी।

    थोड़ी देर बा'द मिसिज़ कोस्टेलो अपनी मर्सीडेनर में मुझे लेने के लिए गईं। कारमन के कमरे में आकर उन्होंने चारों तरफ़ देखा और मेरा सूटकेस उठा लिया... मुझे धक्का सा लगा। मैं इन लोगों को छोड़कर नहीं जाऊँगी। मैं कारमन, एमीलिया, बर्नाडा औरोज़ा, और मैगदीनिया के साथ रहना चाहती हूँ।

    “सामान अभी रहने दीजिए। शाम को देखा जाएगा”, मैंने ज़रा झेंप कर मिसिज़ कोस्टेलव से कहा। “मगर तुमको इस ना-माक़ूल जगह पर बेहद तकलीफ़ होगी”, वो बराबर दुहराती रहीं।

    रात को जब मैं वापिस आई तो कारमन और एमीलिया फाटक की खिड़की में ठुँसी मेरा इंतिज़ार कर रही थीं। “आज हमने तुम्हारे लिए कमरे का इंतिज़ाम कर दिया है”, कारमन ने कहा। मैं ख़ुश हुई कि अब उसे फ़र्श पर सोना पड़ेगा।

    हाल की दूसरी तरफ़ एक ओर सीले हुए कमरे में दो पलंग बिछे थे। एक पर मेरे लिए बिस्तर लगा था और दूसरे पर मिसिज़ सोरेल बैठी सिगरेट पी रही थीं। वो अड़तीस-उनतालिस साल की रही होंगी। उनकी आँखों में अ'जीब तरह की उदासी थी। पोलेनेज़ियन नस्ल की किस शाख़ से उनका तअ'ल्लुक़ था। उनकी शक्ल से मा'लूम हो सकता था। पलंग पर-नीम दराज़ हो कर उन्होंने फ़ौरन अपनी ज़िंदगी की कहानी सुनाना शुरू’ कर दी...।

    “मैं गाम से आई हूँ”, उन्होंने कहा...।

    “गाम कहाँ है?”, मैंने दरियाफ़्त किया।

    “बहर-उल-काहिल में एक जज़ीरा है। उस पर अमरीकन हुकूमत है। वो इतना छोटा जज़ीरा है कि दुनिया के नक़्शे पर उसके नाम के नीचे सिर्फ़ एक नुक़्ता लगा हुआ है। मैं अमरीकन शहरी हूँ...”, उन्होंने ज़रा फ़ख़्र से इज़ाफ़ा किया।

    “गाम…”, मैंने दिल में दोहराया। कमाल है। दुनिया में कितनी जगहें हैं। और उनमें बिल्कुल हमारे जैसे लोग बसते हैं।

    “मेरी लड़की एक वाइलन बजाने वाले के साथ भाग आई है। मैं उसे पकड़ने आई हूँ। वो सिर्फ़ सत्रह साल की है। मगर हद से ज़ियादा ख़ुद-सर... ये आजकल की लड़कियाँ...”, फिर वो दफ़अ'तन उठकर बैठ गईं...। “मुझे कैंसर हो गया था।”

    “ओह…”, मेरे मुँह से निकला। “मुझे सीने का कैंसर हो गया था”, उन्होंने बड़े अलम से कहा... “वर्ना तीन साल क़ब्ल... मैं भी... मैं भी और सबकी तरह नॉर्मल थी...”, उनकी आवाज़ में बे-पायाँ कर्ब था... “देखो…”, उन्होंने अपने नाइट गाउन का कालर सामने से हटा दिया…, मैंने लरज़ कर आँखें बंद कर लीं...। एक औरत से उसके जिस्म की ख़ूबसूरती हमेशा के लिए छिन जाए। कितनी क़हर-नाक बात थी।

    थोड़ी देर बा'द मिसिज़ सोरेल सिगरेट बुझा कर सो गईं। खिड़की की सलाख़ों में से चाँद अंदर झाँक रहा था। नज़दीक के कमरे से मैगदीनिया के गाने की धीमी आवाज़ आनी भी बंद हो गई। दफ़अ'तन मेरा जी चाहा कि फूट-फूट कर रोऊँ।

    उगला हफ़्ता फ़ैशनेबुल रिसालों की ज़बान में ‘सोशल और तहज़ीबी मसरुफ़ियात की आँधी’ की तरह ‘आर्ट-ओ-कल्चर’ के मुआ'मलात में गुज़रा। दिन मिसिज़ कोस्टेलव और उनके अहबाब के हसीन, पुर-फ़िज़ा मकानों में और शामें शहर की जगमगाती तफ़रीह-गाहों में बसर होतीं... हर तरह के लोग... इंटेलक्चुवल, जर्नलिस्ट, मुसन्निफ़, सियासी लीडर, मिसिज़ कोस्टेलव के घर आते और उनसे बेहस-मुबाहिसे रहते और मैं अंग्रेज़ी मुहावरे के अल्फ़ाज़ में अपने आपको गोया बेहद ‘इंज्वाय’ कर रही थी। मैं रात को वाई.डब्लयू. वापिस आती और हाल की चौकोर मेज़ के इर्द-गिर्द बैठ कर पाँचों लड़कियाँ बड़े इश्तियाक़ से मुझसे दिन-भर के वाक़िआ'त सुनतीं...।

    “कमाल है!”, रोज़ा कहती…, “हम इसी शहर के रहने वाले हैं मगर हमें मा'लूम नहीं कि यहाँ ऐसी अलिफ़ लैलवी फ़ज़ाएँ भी हैं।”

    “ये बेहद अमीर लोग जो होते हैं ना। ये इतने रुपये का क्या करते हैं...?”, एमीलिया पूछती।

    एमीलिया एक स्कूल में पढ़ाती थी, रोज़ा एक सरकारी दफ़्तर में स्टेनोग्राफ़र थी। मैगदीनिया और बर्नाडा एक म्यूज़िक कॉलेज में पियानो और वाइलन की आ'ला ता'लीम हासिल कर रही थीं। ये सब मुतवस्सित और निचले मुतवस्सित तबक़े की लड़कियाँ थीं।

    इतवार की सुब्ह कारमन मेस में जाने की तैयारी में मसरूफ़ थी। कोई चीज़ निकालने के लिए मैंने अलमारी की दराज़ खोली तो उसके झटके से ऊपर से एक ऊनी ख़रगोश नीचे गिर पड़ा। मैं उसे वापिस रखने के लिए ऊपर उचकी तो अलमारी की छत पर बहुत सारे खिलौने रखे नज़र आए। “ये मेरे बच्चे के खिलौने हैं”, कारमन ने सिंघार मेज़ के सामने बाल बनाते हुए बड़े इत्मीनान से कहा। “तुम्हारे बच्चे के...?”, मैं हक्का-बक्का रह गई और मैं ने बड़े दुख से उसे देखा…।

    कारमन बिन ब्याही माँ थी। आईने में मेरा रद्द-ए-अ'मल देखकर वो मेरी तरफ़ पलटी। उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया और उसने कहा, “तुम ग़लत समझीं...”, फिर वो खिल-खिला कर हँसी और उसने अलमारी की निचली दराज़ में से एक हल्के नीले रंग की चमकीली, बेबी-बुक निकाली…।

    “देखो ये मेरे बच्चे की साल-गिरह की किताब है जब वो एक साल का होगा तो ये करेगा। जब वो दो साल का हो जाएगा तो ये कहेगा। यहाँ उसकी तस्वीरें चिपकाऊँगी…”, वो इत्मीनान से आलती-पालती मार कर पलंग पर बैठ गई और उसी किताब में से ख़ूबसूरत अमरीकन बच्चों की रंगीन तस्वीरों के तराशे निकाल कर बिस्तर पर फैला दिए...। “देखो मेरी नाक कितनी चपटी है और निक तो मुझसे भी गया गुज़रा है। तो हम दोनों के बच्चे की नाक का सोचो तो क्या हश्र होगा... ? मैं उसकी पैदाइश से महीनों पहले ये तस्वीरें देखा करूँगी ताकि उस बेचारे की नाक पर कुछ असर पड़े।”

    “तुम दीवानी हो अच्छी ख़ासी...”, मैंने कहा। “और ये निक कौन बुज़ुर्ग हैं...?”, उसका रंग एक दम सफ़ेद पड़ गया…, “अभी उसका ज़िक्र करो। उसके नाम पर मुझे लगता है कि मेरा दिल कट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।”

    मगर उसके बा'द वो बराबर निक का ज़िक्र करती रही…, “मैं इतनी बदसूरत हूँ। मगर निक कहता है... कारमन... कारमन... मुझे तुम्हारे दिल से, तुम्हारे दिमाग़ से, तुम्हारी रूह से इ'श्क़ है। निक ने इतनी दुनिया देखी है। इतनी हसीन लड़कियों से उसकी दोस्ती रही है मगर उसे मेरी बद-सूरती का ज़रा भी एहसास नहीं।”

    गिरिजा से वापसी पर, ख़लीज के किनारे-किनारे सड़क पर चलते हुए, वाई.डब्लयू. के नमनाक हाल में कपड़ों पर इस्त्री करते हुए कारमन ने मुझे अपनी और निक की दास्तान सुनाई। निक डॉक्टर था और हार्ट सर्जरी की आ'ला ट्रेनिंग के लिए बाहर गया हुआ था। और उसे दीवाना-वार चाहता था।

    रात को मैं मिसिज़ सोरेल के कमरे से कारमन के कमरे में वापिस चुकी थी। क्योंकि मिसिज़ सोरेल अपनी लड़की को पकड़ लाने में कामयाब हो गई थीं और लड़की अब उनके साथ मुक़ीम थी। सोने से पहले मैं

    मच्छर-दानी ठीक कर रही थी। कारमन फिर फ़र्श पर आसन जमाए थी।

    “निक…”, उसने कहना शुरू’ किया।

    “आजकल कहाँ है?”, मैंने पूछा।

    “मा'लूम नहीं।”

    “तुम उसे ख़त नहीं लिखतीं?”

    “नहीं”

    “क्यों?”, मैंने हैरत से सवाल किया।

    “तुम ख़ुदा पर यक़ीन रखती हो?”, उसने पूछा।

    “ये तो बहुत लंबा-चौड़ा मसअला है”, मैंने जमाई लेकर जवाब दिया…, “मगर ये बताओ कि तुम उसे ख़त क्यों नहीं लिखतीं?”

    “पहले मेरे सवाल का जवाब दो... तुम ख़ुदा पर यक़ीन रखती हो?”

    “हाँ…”, मैंने बहस को मुख़्तसर करने के लिए कहा।

    “अच्छा तो तुम ख़ुदा को ख़त लिखती हो?”

    इमारत की रौशनियाँ बुझ गईं। रात की हवा में आँगन के दरख़्त सरसरा रहे थे। कमरे के दरवाज़े पर पड़ा हुआ सुर्ख़-फूलों वाला पर्दा हवा के झोंकों से फड़फड़ाए जा रहा था। मैंने उठकर उसे एक तरफ़ सरका दिया।

    “बहुत ख़ूबसूरत पर्दा है”, मैंने पलंग की तरफ़ लौटते हुए इज़हार-ए-ख़याल किया। कारमन फ़र्श पर करवट बदल कर आँखें बंद किए लेटी थी। मेरी बात पर वो फिर उठकर बैठ गई। और उसने आहिस्ता-आहिस्ता कहना शुरू’ किया…, “मैं और निक एक मर्तबा पहाड़ी इ'लाक़े में कई सौ मील की ड्राईव के लिए गए थे... सुन रही हो?”

    “हाँ... हाँ... बताओ...”

    “रास्ते में निक ने कहा कि चलो डोनरैमों से मिलते चलें। डोनरैमों निक के वालिद के दोस्त और काबीना के वज़ीर थे और उन्होंने हाल ही में अपने ज़िले’ के पहाड़ी मक़ाम पर नई कोठी बनवाई थी। जब हम लोग उनकी कोठी के नज़दीक पहुँचे तो सामने से सफ़ेद फ़्राक पहने बहुत सी छोटी छोटी बच्चियाँ एक स्कूल से निकल कर आती दिखाई दीं। मुझे वो मंज़र एक ख़्वाब की तरह याद है। फिर हम लोग अंदर गए और मिसिज़ रैमों के इंतिज़ार में उनके शानदार ड्राइंगरूम में बैठे। कैबिनट मिनिस्टर घर पर मौजूद नहीं थे। ड्राइंगरूम और स्टडी के दरमियान जो दीवार थी उसमें शीशे की एक चौकोर डिब्बे ऐसी खिड़की में प्लास्टिक की एक बहुत बड़ी गुड़िया सजी थी जो कमरे की नफ़ीस आरइश के मुक़ाबले में बहुत भद्दी मा'लूम हो रही थी।

    हम दोनों इस बद-मज़ाक़ी पर चुपके से मुस्कुराए फिर मिस रैमों बरामद हुईं। उन्होंने हमें ठंडी चाय पिलाई और सारा घर दिखलाया। उनके ग़ुस्ल-ख़ाने सियाह टाइल के थे और मेहमान कमरे के नफ़ीस दीवान बैड, सुर्ख़ फूलदार टेपिसट्री (Tapestry) के झालर वाले ग़िलाफ़ों से ढके हुए थे। उन पलंगों को देखकर निक ने चुपके से मुझसे कहा था…, “बद-मज़ाक़ी की इंतिहा” और मैंने अपने दिल में कहा था... कोई बद-मज़ाक़ी नहीं। मैं तो अपने घर के लिए ऐसे ही पलंग खरीदूँगी और इसी रंग के ग़िलाफ़ बनवाऊँगी। उसके बा'द... मैं जब भी घरेलू साज़-ओ-सामान की दुकानों से गुज़रती तो उस कपड़े को देखकर मेरे क़दम ठिठक जाते... फिर मैंने तनख़्वाह में से बचा-बचा कर उसी क़ीमती कपड़े का ये पर्दा ख़रीद लिया...।”

    “जब मैं एक मख़सूस चीनी रेस्तोराँ के आगे से गुज़रती हूँ।”, वो उसी आवाज़ में कहती रही…, “और शीशे के दरीचे के क़रीब रखी हुई मेज़ और उस पर जलता हुआ सब्ज़ लैम्प नज़र आता है। तो मेरा दिल डूब सा जाता है। वहाँ मैंने एक शाम निक के साथ खाना खाया था।”

    मुझे नींद रही थी और मैं निक के इस वज़ीफ़े से उकता चुकी थी। मैंने मच्छर-दानी के पर्दे गिराते हुए कहा, “एक बात बताओ। तुमको इस क़दर शदीद इ'श्क़ है अपने इस निक से, तो तुमने इससे शादी क्यों कर ली? अब तक क्यों झक मारती रहीं...?”

    “मुझे दस साल तक एक दूर उफ़्तादा जज़ीरे में अपने बाबा के साथ रहना पड़ा…”, उसने उदासी से जवाब दिया...। “पहले हम लोग इसी शहर में रहते थे। जंग के ज़माने में बमबारी से हमारा छोटा सा मकान जल कर राख हो गया और मेरी माँ और दोनों भाई मारे गए। सिर्फ़ मैं और मेरे बाबा ज़िंदा बचे। बाबा एक स्कूल में साईंस टीचर थे। उनको टी.बी. हो गई। और मैंने उन्हें सेनेटोरियम में दाख़िल करा दिया जो बहुत दूर के जज़ीरे में था... सेनेटोरियम बहुत महंगा था इसलिए कॉलेज छोड़ते ही मैंने उसी सेहत-गाह के दफ़्तर में नौकरी कर ली और आस-पास के दौलतमंद ज़मीन-दारों के घरों में ट्यूशन भी करती रही, मगर बाबा का इलाज और ज़ियादा महंगा होता गया। तब मैंने अपने गाँव जाकर अनानास का आबाई बाग़ीचा रेहन रख दिया। तब भी बाबा अच्छे हुए। मैं एक जज़ीरे से दूसरे जज़ीरे तक कश्ती में बैठ कर जाती और ज़मीन-दारों के महलों में उनके कुंद-ज़हन बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते थक कर चूर हो जाती। तब भी बाबा अच्छे हुए।

    निक से मेरी मुलाक़ात आज से दस साल क़ब्ल एक फीस्टा में हुई थी। उस दौरान में जब भी दार-उल-सल्तनत आती वो मुझसे मिलता रहता। तीन साल हुए उसने शादी पर इसरार किया। लेकिन बाबा की हालत इतनी ख़राब थी कि मैं उनको मरता छोड़कर यहाँ सकती थी। उसी ज़माने में निक को बाहर जाना पड़ गया। जब बाबा मर गए तो मैं यहाँ गई। अब मैं यहाँ मुलाज़िमत कर रही हूँ और अगले साल यूनीवर्सिटी में अपना मक़ाला भी दाख़िल कर दूँगी। मैं चाहती हूँ कि बाबा के खेत भी रेहन से छुड़ा लूँ। निक मेरी मदद करना चाहता था मगर मैं शादी से पहले उससे एक पैसा लूँगी। उसके ख़ानदान वाले बड़े बद-दिमाग़ और अकड़ूँ वाले लोग हैं। और एक लड़की के लिए उसकी इ'ज़्ज़त-ए-नफ़्स बहुत बड़ी चीज़ है। इ'ज़्ज़त-ए-नफ़्स और ख़ुद्दारी और ख़ुद-ए'तिमादी, अगर मुझे कभी ये एहसास हो जाए कि निक भी मुझे हक़ीर समझता है... या मुझे...? सो गईं...? अच्छा गुड नाइट...”

    दूसरे रोज़ सुब्ह वो तैयार हो कर हस्ब-ए-मा'मूल सबसे पहले नाश्ते की मेज़ पर इंतिज़ाम के लिए पहुँच चुकी थी। मिसिज़ सोरेल गाम वापिस जा रही थीं। अपने होने वाले दामाद से उनकी सुल्ह हो गई थी। वो सवेरे ही से आन पहुँचा था। वो एक मनहनी सा नौजवान था और बरामदे के एक कोने में भीगी बिल्ली बना बैठा था। फ़िज़ा पर अ'जीब सी बशाशत तारी थी। लड़कियाँ बात-बात पर क़हक़हे लगा रही थीं। मैं भी बहुत मसरूर थी और ख़ुद को बेहद हल्का-फुलका महसूस कर रही थी। ये हल्के-फुल्केपन और मुकम्मल अम्न-ओ-सुकून का शगुफ़्ता एहसास ज़िंदगी में बहुत कम आता है और सिर्फ़ चंद लम्हे रहता है। मगर वो लम्हे बहुत ग़नीमत हैं। कारमन जल्दी-जल्दी नाश्ता ख़त्म कर के दफ़्तर गई।

    “आज भी तुम अपने शानदार दोस्तों से मिलने जा रही होतीं तो तुमको जीपनी (Jeepney) में बिठा कर शहर के गली-कूचों की सैर कराते”, मैगदीनिया ने मुझसे कहा।

    “तुम्हारे लिए एक कैडीलैक आई है”, रोज़ा ने अंदर आकर इत्तिला दी। “कैडीलैक...? उफ़्फ़ोह…”, कोरस हुआ।

    “तुम्हारे लिए ऐसी-ऐसी जग़ादरी मोटरें आती हैं कि हम लोगों की रौ'ब के मारे बिल्कुल घिग्घी बंध जाती है।”, बर्नाडा ने ख़ुश-दिली से इज़ाफ़ा किया। मैंने लड़कियों को ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और अपना सफ़री बैग कंधे से लटका कर बाहर गई। मैं साबिक़ सफ़ीर डोन गार्सिया डेलप्रेडोस के हाँ दो दिन के लिए उनके हिल स्टेशन जा रही थी। उनके वर्दी पोश शोफ़र ने सियाह कैडीलैक का दरवाज़ा मुअद्दबाना बंद किया और कार शहर से निकल कर सरसब्ज़ पहाड़ों की सिम्त रवाना हो गई।

    पहाड़ की एक चोटी पर डोन गार्सिया का हिसपानवी वज़ा’ का शानदार घर दरख़्तों में छिपा दूर से नज़र रहा था। वादियों में कोहरा मंडला रहा था और सफ़ेद और कासनी और सुर्ख़ और ज़र्द रंग के पहाड़ी फूल सारे में खिले हुए थे। कार फाटक में दाख़िल हो कर पोर्ज में रुक गई। क़बाइली नस्लों वाली शाइस्ता नौकरानियाँ बाहर निकलीं। बटलर ने नीचे आकर कार का दरवाज़ा खोला। हाल के दरवाज़े में डोन गार्सिया और उनकी बीवी डोनामारिया मेरे मुंतज़िर थे। उनका घर सफ़ेद क़ालीनों और सुनहरे फ़र्नीचर और इंतिहाई क़ीमती सामान-ए-आरइश से सजा हुआ था और उस तरह के कमरे थे जिनकी तस्वीरें लाईफ़ मैगज़ीन के रंगीन सफ़्हात पर ‘फ़र्नीचर’ या ‘इंटीरियर डैकोरेशन’ के सिलसिले में अक्सर शाया’ की जाती हैं। कुछ देर बा'द मैं डोना मारिया के साथ ऊपर की मंज़िल पर गई। वहाँ शीशों वाले बरामदे के एक कोने में एक नाज़ुक सी बेद की टोकरी में एक छः महीने की बेहद गुलाबी बच्ची पड़ी गाऊँ-गाऊँ कर रही थी। वो बच्ची इस क़दर प्यारी सी थी कि मैं डोना मारिया की बात अधूरी छोड़कर सीधी टोकरी के पास चली गई। एक बेहद हसीन, सेहत-मंद, तर-ओ-ताज़ा और कम-सिन अमरीकन लड़की नज़दीक के सोफ़े से उठकर मेरी जानिब आई और मुस्कुरा कर मुसाफ़े के लिए हाथ बढ़ाया। “ये मेरी बहू है…”, डोना मारिया ने कहा।

    हम तीनों टोकरी के गिर्द खड़े हो कर बच्ची से लाड-प्यार में मसरूफ़ हो गए। दोपहर को लंच की मेज़ पर अमरीकन लड़की का शौहर भी गया। “ये हमारा बेटा हौज़े है…”, डोन गार्सिया ने कहा।

    हौज़े की उ'म्र तक़रीबन पैंतीस साल की रही होगी। अपनी क़ौमी कुढ़त की हल्के आबी रंग की क़मीस और सफ़ेद पतलून में वो ख़ास वजी’ मा'लूम हो रहा था। वो अपनी नौ उ'म्र बीवी को बे-इंतिहा चाहता था और बच्ची पर आशिक़ था। ज़ियादा-तर वो उसी की बातें करता रहा।

    रात को मैं अपनी बेहद पुर-तकल्लुफ़ और बढ़िया ख़्वाब-गाह में गई जिसके साज़-ओ-सामान को हाथ लगाते फ़िक्र होती थी कि कहीं मैला हो जाए। उस वक़्त मुझे वाई.डब्लयू. के सीले हुए कमरे और तंग मच्छर-दानी और मिसिज़ सोरेल और हाल की बद-रंग मेज़ कुर्सियाँ शिद्दत से याद आईं। दो दिन बा'द प्रेडोस ख़ानदान मेरे साथ ही दार-उल-सल्तनत वापिस लौटा।

    अपने माँ बाप को उनके टाउन हाऊस में उतारने के बा'द हौज़े ने मुझे मेरी जा-ए-क़याम पर पहुँचाने के लिए कैडीलैक दोबारा स्टार्ट की। हौज़े और उसकी बीवी डोरोथी सिर्फ़ दो हफ़्ते क़ब्ल अमरीका से लौटे थे। उनका बहुत सा सामान कस्टम हाऊस में पड़ा था जिसे छुड़ाने के लिए उन्हें जाना था। शहर के सबसे आ'ला होटल के सामने हौज़े ने कार रोक ली। “यहाँ क्या करना है?”, मैंने उससे पूछा। “तुम यहीं ठहरी हो ना?”

    “नहीं डियर हौज़े। मैं वाई.डब्लयू.सी.ए. में ठहरी हूँ।”

    “वाई. डब्लयू...? गुड गॉड... कमाल है। अच्छा, वहीं चलते हैं मगर क्या तुमको यहाँ जगह मिल सकी? तुम्हें चाहिए था कि आते ही डैडी को इत्तिला देतीं...”

    उस वक़्त मुझे दफ़अ'तन ख़याल आया कि मैं हर तबक़े और हर क़िस्म के लोगों को अपनी उफ़्ताद-ए-तबा’ के ज़रीए’ कम-अज़-कम अपनी हद तक ज़हनी तौर पर हम-वार करती चली जाती हूँ मगर हौज़े और उसके वालिदैन इस मलिक के दस-दौलतमंद तरीन ख़ानदानों में शामिल थे और यहाँ के हुकमरान तबक़े के अहम सुतून थे और इन लोगों को ये समझाना बिल्कुल बेकार था कि मुझे वाई.डब्लयू. क्यों इतना अच्छा लगा है और मैं वहाँ ठहरने पर क्यों इस क़दर मुसिर हूँ।

    हौज़े ने गली के नुक्कड़ पर कार रोक ली। क्योंकि जेंपियों की क़तार ने सारा रास्ता घेर रखा था। मैं जब वाई.डब्लयू. के अंदर पहुँची तो सब लोग सो चुके थे। मैं चुपके से जाकर अपनी मच्छर-दानी में घुस गई। कारमन हस्ब-ए-मा'मूल फ़र्श पर सुकून के साथ सो रही थी। इसके सिरहाने सांतो तोमास (सैंट तामस) की तस्वीर पर गली के लैम्प का मद्धम अ'क्स झिलमिला रहा था।

    सुब्ह चार बजे उठकर मैं दबे-पाँव चलती शिकस्ता ग़ुस्ल-ख़ाने में गई और आहिस्ता से पानी का नल खोला। मगर पानी की धार इस ज़ोर से निकली कि मैं चौंक उठी। उसी तरह चुपके-चुपके कमरे में आकर मैंने अस्बाब बाँधा ताकि आहट से कारमन की आँख खुल जाए। इतने में मैंने देखा कि वो फ़र्श पर से ग़ाइब है। कुछ देर बा'द उसने आकर कहा, “नाश्ता तैयार है…”, वो टैक्सी के लिए फ़ोन भी कर चुकी थी। “कैसा सफ़र रहा...?”, उसने चाय उंडेलते हुए पूछा।

    “बहुत दिलचस्प”

    “ये तुम्हारे दोस्त लोग कौन थे, जहाँ तुम गई थीं...? तुमने बताया ही नहीं।”, मैं बात शुरू’ करने ही वाली थी कि मुझे अचानक एक ख़याल आया। मैंने जल्दी से कमरे में जाकर सूटकेस खोला। एक नई बनारसी साड़ी निकाल कर एक पर्चे पर लिखा, “तुम्हारी शादी के लिए मेरा पेशगी तोहफ़ा…”, और साड़ी और पर्चा कारमन के तकिए के नीचे रख दिया।

    “टैक्सी गई…”, कारमन ने बरामदे में से आवाज़ दी। हम दोनों सामान उठा कर बाहर आए। मैं टैक्सी में बैठ गई। इतने में कारमन फाटक की खिड़की में से सर निकाल कर चिल्लाई…, “अरे तुमने अपना पता तो दिया ही नहीं…”, मैंने काग़ज़ के टुकड़े पर अपना पता घसीट कर उसे थमा दिया। फिर मुझे भी एक बेहद ज़रूरी बात याद आई…, “हद हो गई कारमन तुम्हारी वाई. डब्लयू. ने मुझे अपना बिल नहीं दिया।”

    “बको मत...।”

    “अरे ये तुम्हारा निजी घर तो नहीं था।”

    “तुम मेरी मेहमान थीं।”

    “बको मत...।”

    “तुम ख़ुद मत बको। अब भागो वर्ना हवाई जहाज़ छुट जाएगा और देखो, जब मैं शादी का कार्ड भेजूँ तो तुमको आना पड़ेगा। मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगी। ज़रा सोचो, निक तुमसे मिलकर कितना ख़ुश होगा।” मगर हम दोनों को मा'लूम था कि मेरा दोबारा इतनी दूर आना बहुत मुश्किल है। “ख़ुदा-हाफ़िज़ कारमन…”, मैंने कहा।

    “ख़ुदा-हाफ़िज़”, वो खिड़की में से सर निकाल कर बहुत देर तक हाथ हिलाती रही। टैक्सी सुब्ह-ए-काज़िब के धुँदलके में एअर पोर्ट रवाना हो गई।

    हवाई जहाज़ तैयार खड़ा था। मैं कस्टम काउंटर पर से लौटी तो पीछे से डोन गार्सिया की आवाज़ आई, “निक! मैं ज़रा सिगार ख़रीद लूँ!”

    “बहुत अच्छा डैडी…”, ये हौज़े की आवाज़ थी। मैं चौंक कर पीछे मुड़ी। हौज़े मुस्कुराता हुआ मेरी तरफ़ बढ़ा…, “देखा हम लोग कैसे ठीक वक़्त पर पहुँचे।

    “हौज़े...”, मैंने डूबते हुए दिल से पूछा…, “तुम्हारा दूसरा नाम किया है?”

    “निक... डैडी जब बहुत लाड में आते हैं तो मुझे निक पुकारते हैं। वर्ना आ'म तौर पर मैं हौज़े ही कहलाता हूँ। क्यों...?”

    “कुछ नहीं…”, मैं उसके साथ-साथ लाऊंज की तरफ़ चलने लगी…, “तुम अमरीका क्या करने गए थे?”, मैंने आहिस्ता से पूछा। “हार्ट सर्जरी में स्पेशलाइज़ करने... तुम्हें बताया तो था क्यों...?”

    “तुम... कभी तुमने... तुमने”

    “क्यों...? क्या हुआ...? क्या बात है?”

    “कुछ नहीं…”, मेरी आवाज़ डूब गई। लाऊड स्पीकर ने यकसानियत से दोहराना शुरू’ किया…, “पैन अमरीकन के मुसाफ़िर... पैन अमरीकन के मुसाफ़िर...”

    “अरे... रवानगी का वक़्त इतनी जल्दी गया?”, निक ने तअ'ज्जुब से घड़ी देखी। डोन गार्सिया सिगार ख़रीद कर शफ़क़त से मुस्कुराते मेरी तरफ़ आए, मैंने दोनों बाप बेटों का शुक्रिया अदा किया। उन्हें ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और तेज़ी से मुसाफ़िरों की क़तार में जा मिली। दौड़ते हुए तय्यारे की खिड़की में से मैंने देखा। डोन गार्सिया और निक नीचे रेलिंग पर झुके रूमाल हिला रहे थे। तय्यारे ने ज़मीन से बुलंद होना शुरू’ कर दिया...।

    यहाँ से बहुत दूर, ख़तरनाक तूफ़ानों से घिरे हुए पूरबी समंदर में हरे-भरे जज़ीरों का एक झुंड है जो फ़िलपाइन कहलाता है। उसके जागते जगमगाते दार-उल-सल्तनत मनीला के एक बे-रंग से मुहल्ले की एक शिकस्ता इमारत के अंदर एक बेहद चपटी नाक और फ़रिश्ते के से मा'सूम दिल वाली फ़िलपिनो लड़की रहती है जो अपने बच्चे के लिए खिलौने जमा’ कर रही है और अपने ख़ुदा की वापसी की मुंतज़िर है जिसकी ज़ात पर उसे कामिल यक़ीन है।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए