चन्द मुकालमे
“अस्सलाम-ओ-अलैकुम।”
“वाअलैकुम अस्सलाम।”
“कहिए मौलाना, क्या हाल है?”
“अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है, हर हाल में गुज़र रही है।”
“हज से कब वापस तशरीफ़ लाए?”
“जी आप की दुआ से एक हफ़्ता हो गया है।”
“अल्लाह अल्लाह है। आपने हिम्मत की तो ख़ान-ए-का’बा की ज़ियारत कर ली। हमारी तमन्ना दिल ही में रह जाएगी दुआ कीजिए ये सआदत हमें भी नसीब हो।”
“इंशाअल्लाह वर्ना मैं गुनहगार किस क़ाबिल हूँ।”
“मेरे लायक़ कोई ख़िदमत?”
“किसी तकलीफ़ की ज़रूरत नहीं, हाँ देखिए ज़रा कान कीजिए इधर, मेरे हाँ खांड की दो बोरियां हैं। आपकी बेशुमार लोगों से जान पहचान है, किसी को ज़रूरत हो तो मुझ से फ़रमा दीजिएगा। आप मेरा मतलब समझ गए होंगे। दाम वाजिबी होंगे।”
“लीजिए जनाब, हमारी ख़िदमात का सिला मिल गया।”
“क्या? वैसे मुबारक हो।”
“सौ सौ मुबारक, कम्पनी ने नौकरी से जवाब दे दिया।”
“हाएं, ये कब की बात है?”
“एक महीना हो गया है।”
“ला-हौल-वला... मुझे मालूम ही नहीं था।”
“दो सौ मुलाज़िमों की छांटी हुई थी ना।”
“बहुत अफ़सोस की बात है, कोई एहतिजाज वग़ैरा हुआ था?”
“सैकड़ों हड़तालें हुईं, जलूस निकले, कई मर्तबा लोगों ने भूक हड़ताल की, वा’दे हुए, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात।”
“तअ’ज्जुब है किसी के कान पर जूं तक न रेंगी?”
“अल्लाह रहम करे।”
“अल्लाह अब रहम नहीं करेगा। वो दिन लद गए जब वो माइल-ए-बकरम हुआ करता था। इतने आदमी हैं वो किस किस की हाजत रवा करे। मेरा तो ख़याल है ऊपर आसमानों पर भी राशनिंग सिस्टम हो गया है।”
“मैं इस बदज़ात से क्या कहूं, साफ़ मुझे दग़ा दे गया।”
“कैसे?”
“हरामज़ादे ने वा’दा किया और दोनों ‘ब्यूक’ गाड़ियां कहीं ठिकाने लगा दीं।”
“इसकी वजह?”
“मैंने उसका एक काम किया था, इसके इवज़ में उसने मुझसे वा’दा किया था कि वो मुझे एक ‘ब्यूक’ कार जो उसके पास आने वाली थी, आधी क़ीमत पर दे देगा।”
“और जो तुमने उसका काम किया था वो तो लाखों का था।”
“इसी लिए तो कहता हूँ कि ब्लडी स्वाइन ने मेरे साथ धोका किया, लेकिन मैं उससे बदला लूंगा, मैं उससे कम बदज़ात... मेरा मतलब है कम चालबाज़ नहीं। उसको ऐसा अड़ंगा दूंगा कि सीधी नाक ‘ब्यूक’ मेरे घर पहुंचा के जाएगा।”
“बावर्ची को बुलाओ, जल्दी बुलाओ। हम उससे बात करना मांगता है।”
“हुज़ूर हाज़िर हूँ।”
“ये तुमने आज कैसे वाहियात खाने पकाए हैं?”
“हुज़ूर।”
“हुज़ूर के बच्चे, इस प्लेट से बेगम साहब ने एक ही निवाला उठाया था कि उन्हें मतली आ गई।”
“हुज़ूर मुम्किन है कोई गड़बड़ हो गई हो, माफ़ी चाहता हूँ।”
“माफ़ी के बच्चे... उठाओ ये सालन और बाहर फेंक कर आओ।”
“हम नौकर खालेंगे सरकार।”
“नहीं, बाहर डस्टबिन में डाल दो, और तुम सज़ा के तौर पर भूके रहो। उठिए बेगम, हम किसी होटल में चलते हैं।”
“अम्मां, अब गुज़ारा कैसे होगा? यहां लत्ते बदन पर झूलने का ज़माना आ गया है।”
“तू ठीक कहती है बेटा।”
“क्या होगा?”
“सारा बाज़ार ही मंदा है।”
“क्यों?”
“लोगों के पास रुपया नहीं।”
“लेकिन ये जो सड़कों पर इतनी शानदार मोटरें चलती हैं, ये जो औरतें तन पर ज़र्क़-बर्क़ लिबास होते हैं, ये कहाँ से आते हैं, ये रुपया कहां से आता है अम्मां?”
“उन लोगों के पास है।”
“तो फिर बाज़ार क्यों मंदा है?”
“अब उन लोगों ने अपने आपस ही में हमारा धंदा शुरू कर दिया है।”
“डार्लिंग।”
“जी।”
“सारी दुकानें छान मारीं मगर तुम्हारे साइज़ की ‘मेडन फ़ोर्म” ब्रेज़ियर न मिल सकी।”
“ओह! हाउ सैड... मेरा साइज़ ही कुछ वाहियात सा है।”
“दा’वत तो जनाब ऐसी होगी कि यहां की तारीख़ में यादगार रहेगी लेकिन एक अफ़सोस है कि फ़्रांस से जो मैंने शैम्पेन मंगवाई थी, वक़्त पर न पहुंच सकेगी।”
“अजी सुनिए तो।”
“ओह आप, मुझे बड़ा ज़रूरी काम है। माफ़ फ़रमाईए।”
“माफियां तुम लाख मर्तबा मांग चुके हो। वो मेरा सौ रुपये का क़र्ज़ अदा करो जो तुमने आज से क़रीब क़रीब एक साल हुआ लिया था।”
“मैं फिर माफ़ी चाहता हूँ, मेरी बीवी बीमार है दवा लेने जा रहा हूँ।”
“मैं इन घिस्सों में आने वाला नहीं, ख़ुदा की क़सम, अगर आज मेरा क़र्ज़ अदा न हुआ तो सर फोड़ दूंगा तुम्हारा।”
“आप क्यों इतनी ज़हमत उठाएँ, मैं ख़ुद ही इस दीवार के साथ टक्कर मार के अपना सर फोड़े लेता हूँ, ये लीजिए।”
“ये चरस की लत तुम्हें कहाँ से पड़ी?”
“क्या बताऊं यार, अब तो इसके बग़ैर रहा ही नहीं जाता।”
“मैंने तुम से पूछा था कि लत कहाँ से पड़ी, तुमने कुछ और ही हाँकना शुरू कर दिया है।”
“भाई, ये लत मुझे जेल में लगी।”
“जेल में, वहां तो एक मक्खी भी अंदर नहीं जा सकती।”
“भाई मेरे, वहां मगरमच्छ भी जा सकते हैं, हाथी भी जा सकते हैं, अगर तुम्हारे पास दौलत है तो आप वहां एक दो हाथी भी साथ रख सकते हैं।”
“पहेलियां न बुझवाओ। बताओ ये चरस वहां कैसे पहुंच जाती है?”
“वैसे ही जैसे हम वहां पहुंच सकते हैं। मेरे अज़ीज़ जेलख़ाना सिर्फ़ उन लोगों के लिए जेलख़ाना है जो साहब-ए-इस्तेताअ’त नहीं, जो दौलतमंद मुजरिम हैं, उनको वहां हर क़िस्म की मुराआ’त मिल सकती हैं और मिलती हैं।”
“अगर तुम चाहो तो तुम्हें वहां शराब मिल सकती है, गांजा मिल सकता है, अफ़यून दस्तयाब हो सकती है। अगर तुम बड़े रईस हो तो अपनी बीवी को भी वहां बुला सकते हो जो रात भर तुम्हारी मुट्ठी चापी करती रहेगी।”
“जेलख़ानों में एक ‘ख़ाकी मार्कीट’ होती है जो ब्लैक मार्कीट से ज़्यादा ईमानदार है।”
“कर्नल साहब, आपकी उम्र कितनी होगी?”
“मेरा ख़याल है पैंसठ के क़रीब होगी... आपकी?”
“आप झूट बोलते हैं, माशा अल्लाह अभी जवान हैं। मेरी उम्र, मेरी उम्र यही पच्चीस-छब्बीस बरस के क़रीब होगी।”
“तो हम दोनों सच बोल रहे हैं।”
“मुझे लिपस्टिक से नफ़रत है। मालूम नहीं औरतें इसे क्यों इस्तेमाल करती हैं? इससे होंटों का सत्यानास हो जाता है।”
“मुझे ख़ुद इससे नफ़रत है।”
“लेकिन तुम्हारे होंटों पर तो ये वाहियात चीज़ मौजूद है... ख़ून की तरह सुर्ख़ हो रहे हैं।”
“ये सुर्ख़ी मेरे अपने होंटों की है, या’नी मस्नूई नहीं”
“तो आओ एक बोसा ले लूँ।”
“बड़े शौक़ से।”
“परे हटिए अब मुझे नहीं मालूम था कि मर्द भी लिपस्टिक इस्तेमाल करते हैं।”
“वो कैसे?”
“ज़रा आईने में अपने होंट मुलाहिज़ा फ़रमाईए।”
“साहब, आपसे कोई मिलने आया है?”
“कह दो साहब घर में नहीं हैं।”
“बहुत अच्छा जनाब।”
“चला गया?”
“जी नहीं, चली गई।”
“क्या मतलब?”
“जी वो एक एक्ट्रेस थी जिसका नाम...”
“भागो भागो, जल्दी उसको बुला के लाओ और कहो, तुमने झूट बोला था कि साहब घर में नहीं हैं।”
“आप आजकल कहाँ घंटों ग़ायब रहते हैं?”
“बेगम एक यतीम बच्चा है, उसको देखने कभी कभी चला जाता हूँ।”
“उस यतीम बच्चे से आपको इतनी दिलचस्पी क्यों है?”
“यतीम जो हुआ।”
“आपकी जेब में उसका फ़ोटो भी मौजूद रहता है।”
“इसलिए... इसलिए...”
“कि वो आपका यतीम बच्चा है।”
“नॉन सेंस्।”
“आपकी क़मीस पर सुर्ख़ धब्बा कैसे लगा?”
“मेरी क़मीस पर? कहाँ है?”
“दाहिने हाथ, गिरेबान के क़रीब।”
“ओह... मैं जब दफ़्तर में किसी ज़रूरी मसअले पर ग़ौर कर रहा होता हूँ तो मुझे किसी बात का होश नहीं रहता। ये लाल पेंसिल का निशान है जिससे मैंने खुजला लिया होगा।”
“जी हाँ, लेकिन इसमें से तो मैक्स फैक्टर की ख़ुशबू आ रही है।”
“तुम आजकल किस की बीवी हो?”
“कल तो मिस्टर... की थी, आज छुट्टी पर हूँ।”
“आप मैदान-ए-जंग में जा रहे हैं ख़ुदा आप का हाफ़िज़-ओ-नासिर हो लेकिन मुझे कोई निशानी देते जाईए।”
“मेरी निशानी तो तुम ख़ुद हो।”
“नहीं, कोई ऐसी चीज़ देते जाईए जिसको देख कर अपना दिल बहलाती रहूं।”
“मैं वहां से भेज दूँगा।”
“क्या चीज़?”
“वो ज़ख़्म जो मुझे लड़ने के दौरान आयेंगे।”
“आपकी बेगम कैसी हैं?”
“ये तो आपको मालूम होगा। अपनी बेगम के बारे में मुझसे दरयाफ़्त फ़रमा सकते हैं।”
“वो कैसी हैं?”
“पहले से बदरजहा बेहतर और ख़ुश हैं। मुझे उनकी तबीयत बहुत पसंद आई।”
“यार, तुम इतनी औरतों से याराना कैसे गांठ लेते हो?”
“याराना कहाँ गांठता हूँ, बाक़ायदा शादी करता हूँ।”
“शादी करते हो?”
“हाँ भाई, मैं हरामकारी का क़ाइल नहीं। शादी करता हूँ और जब उकता जाता हूँ तो हक़-ए-मेहर अदा कर के उससे छुटकारा हासिल कर लेता हूँ।”
“इस्लाम ज़िंदाबाद।”
- पुस्तक : رتی،ماشہ،تولہ
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