दो बहनें दो साल बाद एक तीसरे अज़ीज़ के घर मिलीं और ख़ूब रो धोकर ख़ामोश हुईं तो बड़ी बहन रूप कुमारी ने देखा कि छोटी बहन राम दुलारी सर से पांव तक गहनों से लदी हुई है। कुछ उसका रंग खिल गया। मिज़ाज में कुछ तमकनत आगई है और बातचीत करने में कुछ ज़्यादा मुश्ताक़ हो गई है। बेशक़ीमत साड़ी और बेलदार उन्नाबी मख़मल के जंपर ने उसके हुस्न को और भी चमका दिया है। वही राम दुलारी जो लड़कपन में सर के बाल खोले फूहड़ सी इधर उधर खेला करती थी। आख़िरी बार रूप कुमारी ने उसे उसकी शादी में देखा था दो साल क़ब्ल तक भी उसकी शक्ल व सूरत में कुछ ज़्यादा तग़य्युर न हुआ था। लंबी तो हो गई थी मगर थी उतनी ही दुबली। उतनी ही ज़र्द रु व उतनी ही बदतमीज़, ज़रा-ज़रा सी बात पर रूठने वाली। मगर आज तो कुछ हालत ही और थी। जैसे कली खिल गई हो। और हुस्न उसने कहाँ छिपा रखा था, नहीं नज़रों को धोका हो रहा है। ये हुस्न नहीं महज़ दीदा ज़ेबी है। रेशम मख़मल और सोने की बदौलत नक़्शा थोड़ा ही बदल जाएगा। फिर भी वो आँखों में समाई जाती है। पचासों औरतें जमा हैं। मगर ये सह्र, ये कशिश और किसी में नहीं। और उसके दिल में हसद का एक शोला सा दहक उठा।
कहीं आईना मिलता तो वो ज़रा अपनी सूरत भी देखती। घर से चलते वक़्त उसने अपनी सूरत देखी थी। उसे चमकाने के लिए जितना सैक़ल कर सकती थी वो किया था लेकिन अब वो सूरत जैसे याददाश्त से मिट गई है। उसकी महज़ एक धुँदली सी परछाईं ज़ह्न में है उसे फिर से देखने के लिए वो बेक़रार हो रही है। यूं तो उसके साथ मेक-अप के लवाज़मात के साथ आईना भी है लेकिन मजमें में वो आईना देखने या बनाव सिंघार करने की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में ख़ुदा जाने क्या समझें। यहां कोई आईना तो होगा ही।
ड्राइंगरूम में तो ज़रूर होगा। वो उठकर ड्राइंगरूम में गई और क़द-ए-आदम शीशा में अपनी सूरत देखी, उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल बे ऐब हैं। मगर वो ताज़गी वो शगुफ़्तगी वो नज़र फ़रेबी नहीं है। राम दुलारी आज खुली है और उसे खुले हुए ज़माना हो गया लेकिन इस ख़याल से उसे तस्कीन नहीं हुई। वो राम दुलारी से हेटी बन कर नहीं रह सकती। ये मर्द भी कितने अहमक़ होते हैं किसी में असली हुस्न की परख नहीं। उन्हें तो जवानी ,शोख़ी और नफ़ासत चाहिए। आँखें रखकर भी अंधे बनते हैं। मेरे कपड़ों में राम दुलारी को खड़ा कर दो। फिर देखो। ये सारा जादू कहाँ उड़गया है। चुड़ैल सी नज़र आए। इन अहमक़ों को कौन समझाए।
राम दुलारी के घर वाले तो इतने ख़ुशहाल न थे। शादी में जो जोड़े और ज़ेवर आए थे वो बहुत ही दिल-शिकन थे। इमारत का कोई दूसरा सामान ही न था। उसके सुसर एक रियासत के मुख़्तार-ए-आम थे और शौहर कॉलेज में पढ़ता था। इस दो साल में कैसे हुन बरस गया। कौन जाने ज़ेवर किसी से मांग कर लाई हो। कपड़े भी दो-चार दिन के लिए मांग लिए हों। उसे ये स्वाँग मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ वैसी ही अच्छी हूँ। अपनी हैसियत को बढ़ा कर दिखाने का मर्ज़ कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है। लेकिन इस तरह बन-ठन कर निकलेंगी गोया कहीं कि राजकुमारी हैं। बिसातियों के दर्ज़ियों के और बज़्ज़ाज़ के तक़ाज़े सहेंगी शौहर की घुड़कियां खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी। मगर नुमाइश के जुनून को नहीं रोक सकीं। घर वाले भी सोचते होंगे कितनी छिछोरी तबीयत है इसकी मगर यहां तो बे-हयाई पर कमर बांध ली। कोई कितना ही हँसे बे-हया की बला दूर। बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएं उधर उसकी ख़ूब तारीफ़ें की जाएं। राम दुलारी ने ज़रूर किसी से ज़ेवर और कपड़े मांग लिए हैं। बेशर्म जो है। उसके चेहरे पर ग़ुरूर की सुर्ख़ी झलक पड़ी। ना सही उस के पास ज़ेवर और कपड़े किसी के सामने शर्मिंदा तो नहीं होना पड़ता। एक एक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान उन्हें ज़िंदा सलामत रखे। वो इसी में ख़ुश है। ख़ुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने ही से तो ज़िंदगी का मक़सद पूरा नहीं हो जाता। उसके घर वाले ग़रीब हैं पर इज़्ज़त तो है किसी का गला तो नहीं दबाते। किसी की बद-दुआ तो नहीं लेते।
इस तरह अपना दिल मज़बूत करके वो फिर बरामदे में आई तो राम दुलारी ने जैसे रहम की आँखों से देखकर कहा,
जीजा जी की कुछ तरक़्क़ी वरक़्क़ी हुई कि नहीं बहन, या अभी तक वही पछत्तर पर क़लम घिस रहे हैं।
रूप कुमारी के बदन में आग सी लग गई। ओफ़्फ़ोह रे दिमाग़। गोया उसका शौहर लाट ही तो है। अकड़कर बोली, तरक़्क़ी क्यों नहीं हुई। अब सौ के ग्रेड में हैं। आजकल ये भी ग़नीमत है। मैं तो अच्छे अच्छे एम.ए. पासों को देखती हूँ कि कोई टके को नहीं पूछता। तेरा शौहर अब बी.ए. में होगा।
उन्होंने तो पढ़ना छोड़ दिया है। बहन! पढ़ कर औक़ात ख़राब करना था और क्या एक कंपनी के एजेंट हो गए हैं। अब ढाई सौ रुपया माहवार कमाते हैं। कमीशन ऊपर से। पाँच सौ रुपया रोज़ सफ़र ख़र्च के भी मिलते हैं। ये समझ लो पाँच सौ का औसत पड़ जाता है। डेढ़ सौ रुपया माहवार तो उनका ज़ाती ख़र्च है। बहन! ऊंचे ओहदे पर हैं तो अच्छी हैसियत भी बनाए रखनी लाज़िम है। साढे़ तीन सौ रुपया बेदाग़ घर दे देते हैं। उसमें सौ रुपये मुझे मिलते हैं। ढाई सौ में घर का ख़र्च ख़ुशफ़ेली से चल जाता है। एम.ए. पास करके क्या करते।
रूप कुमारी उसे शैख़ चिल्ली की दास्तान से ज़्यादा वक़त नहीं देना चाहती थी। मगर राम दुलारी के लहजे में इतनी सदाक़त है कि तहतुश-शुऊर में उससे मुतास्सिर हो रही है और उसके चेहरे पर ख़िफ़्फ़त शिकस्त की बदमज़गी साफ़ झलक रही है। मगर उसे अपने होशो-हवास को क़ायम रखना है। तो इस असर को दिल से मिटा देना पड़ेगा। उसे जिरहों से अपने दिल को यक़ीन करा देना पड़ेगा कि इसमें एक चौथाई से ज़्यादा हक़ीक़त नहीं है। वहां तक वो बर्दाश्त करेगी। इससे ज़्यादा कैसे बर्दाश्त कर सकती है। इसके साथ ही उसके दिल में धड़कन भी है कि अगर ये रूदाद सच निकली तो वो कैसे राम दुलारी को मुँह दिखा सकेगी। उसे अंदेशा है कि कहीं उसकी आँखों से आँसू निकल पड़ें। कहाँ पछत्तर और कहाँ पाँच सौ, इतनी रक़म ज़मीर का ख़ून करके भी क्यों न मिले। फिर भी रूप कुमारी उसकी मुतहम्मिल नहीं हो सकती। ज़मीर की क़ीमत ज़्यादा से ज़्यादा सौ रुपये हो सकती है पाँच सौ किसी हालत में नहीं।
उसने तम्सख़्ख़ुर के अंदाज़ से पूछा, जब एजेंटी में इतनी तनख़्वाह और भत्ते मिलते हैं तो कॉलेज बंद क्यों नहीं हो जाते? हज़ारों लड़के क्यों अपनी ज़िंदगी ख़राब करते हैं।
राम दुलारी बहन की ख़िफ़्फ़त का मज़ा उठाती हुई बोली, बहन तुम यहां ग़लती कर रही हो, एम.ए. तो सब ही पास हो सकते हैं। मगर एजेंटी करनी किसको आती है। ये ख़ुदादाद मलिका है। कोई ज़िंदगी भर पढ़ता रहे, मगर ज़रूरी नहीं कि वो अच्छा एजेंट हो जाए, रुपया पैदा करना दूसरी चीज़ है इल्मी फ़ज़ीलत हासिल करना दूसरी चीज़ है, अपने माल की ख़ूबी का यक़ीन पैदा कर देना या ज़ेह्न नशीन करा देना कि इससे अरज़ाँ और देरपा चीज़ बाज़ार में मिल ही नहीं सकती, आसान काम नहीं है। एक से एक ग्राहकों से उनका साबिक़ा पड़ता है। बड़े बड़े राजाओं और रईसों की तालीफ़ क़ल्ब करनी पड़ती है औरों की तो उन राजाओं और नवाबों के सामने जाने की हिम्मत भी न पड़े और किसी तरह पहुंच जाएं तो ज़बान न निकले। शुरू शुरू में उन्हें भी झिझक हुई थी। मगर अब तो इस दरिया के मगर हैं। अगले साल तरक़्क़ी होने वाली है।
रूप कुमारी की रगों में जैसे ख़ून की हरकत बंद हुई जा रही है। ज़ालिम आसमान क्यों नहीं गिर पड़ता। बेरहम ज़मीन क्यों नहीं फट जाती। ये कहाँ का इन्साफ़ है कि रूप कुमारी जो हसीन है तमीज़दार है किफ़ायत शिआर है अपने शौहर पर जान देती है, बच्चों को ये जान से अज़ीज़ समझती है उसकी ख़स्ता-हाली में बसर हो और ये बदतमीज़, तनपरवर चंचल छोकरी रानी बन जाये। मगर अब भी कुछ उम्मीद बाक़ी थी। शायद उसकी तस्कीन-ए-क़ल्ब का कोई रास्ता निकल आए।
उसी तम्सख़ुर के अंदाज़ से बोली, तब तो शायद एक हज़ार मिलने लगें।
एक हज़ार तो नहीं मगर छः सौ में शुब्हा नहीं।
कोई आँख का अंधा मालिक बन गया होगा?
ब्योपॉरी आँख के अंधे नहीं होते। जब तुम उन्हें छः हज़ार कमा कर दो तब कहीं छः सौ मिलें। जो सारी दुनिया को चराए उसे कोई क्या बेवक़ूफ़ बनाएगा।
तमसख़ुर से काम चलते न देखकर रूप कुमारी ने तहक़ीर शुरू की, मैं तो उसको बहुत मुअज़्ज़ज़ पेशा नहीं समझती। सारे दिन झूट के तोमार बाँधो। ये ठीक बिद्या है।
राम दुलारी ज़ोर से हंसी, रूप कुमारी पर उसने कामिल फ़तह पाई थी, इस तरह तो जितने वकील-बैरिस्टर हैं सभी ठीक बिद्या करते हैं अपने मुवक्किल के फ़ायदे के लिए उन्हें झूटी शहादतें तक बनानी पड़ती हैं। मगर उन ही वकीलों को हम अपना लीडर कहते हैं। उन्हें अपनी क़ौमी सभाओं का सदर बनाते हैं। उनकी गाड़ियां खींचते हैं, उन पर फूलों की और ज़र-ओ-जवाहर की बरखा करते हैं। आजकल दुनिया पैसा देखती है, पैसे कैसे आएं, ये कोई नहीं देखता। जिसके पास पैसा हो उसकी पूजा होती है। जो बदनसीब हैं, नाक़ाबिल हैं, पस्तहिम्मत हैं, ज़मीर और अख़्लाक़ की दुहाई देकर अपने आँसू पोंछ लेते हैं। वर्ना ज़मीर और अख़्लाक़ को कौन पूछता है।
रूप कुमारी ख़ामोश हो गई। अब ये हक़ीक़त उसकी सारी तल्ख़ियों के साथ तस्लीम करनी पड़ेगी कि राम दुलारी उससे ज़्यादा ख़ुशनसीब है। इससे मुज़िर नहीं। तमसख़ुर या तहक़ीर से वो अपनी तंगदिली के इज़हार के सिवा और किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकती। उसे बहाने से राम दुलारी के घर जाकर असलियत की छानबीन करनी पड़ेगी। अगर राम दुलारी वाक़ई लक्ष्मी का बरदान पा गई है तो वो अपनी क़िस्मत ठोंक कर बैठ रहेगी। समझ ले कि दुनिया में कहीं इन्साफ़ नहीं है। कहीं ईमानदारी की क़दर नहीं है। मगर क्या सच-मुच इस ख़याल से उसे तस्कीन होगी। यहां कौन ईमानदार है। वही जिसे बेईमानी का मौक़ा नहीं है और न ही इतनी हिम्मत है कि वो मौक़ा पैदा कर ले। उसके शौहर पछत्तर रुपये माहवार पाते हैं। मगर क्या दस बीस रुपये ऊपर से मिल जाएं तो वो ख़ुश होके न लेंगे? उनकी ईमानदारी और उसूल पर्वरी उस वक़्त तक है जब तक मौक़ा नहीं मिलता। जिस दिन मौक़ा मिला सारी उसूल पर्वरी धरी रह जाएगी। और तब तक रूप कुमारी में इतनी अख़्लाक़ी क़ुव्वत है कि वो अपने शौहर को नाजायज़ आमदनी से रोक दे। रोकना तो दरकिनार, वो ख़ुश होगी। शायद वो अपने शौहर की पीठ ठोंके। अभी उनके दफ़्तर से वापसी के वक़्त मन मारे बैठी रहती है। तब दरवाज़े पर खड़ी हो कर उनका इंतिज़ार करेगी और जूं ही वो घर में आएँगे उनकी जेबों की तलाशी लेगी।
आँगन में गाना बजाना हो रहा था। राम दुलारी उमंग के साथ गा रही थी और रूप कुमारी वहीं बरामदे में उदास बैठी हुई थी। न जाने क्यों उसके सर में दर्द होने लगा था। कोई गाये, कोई नाचे उसे कोई सरोकार नहीं। वो तो बदनसीब है रोने के लिए पैदा की गई है।
नौ बजे रात के मेहमान रुख़्सत होने लगे। रूप कुमारी भी उठी, यक्का मंगवाने जा रही थी कि राम दुलारी ने कहा,
यक्का मंगवाकर क्या करोगी बहन, मुझे लेने के लिए अभी कार आती होगी, दो-चार दिन मेरे यहां रहो फिर चली जाना। मैं जीजा जी को कहला भेजूँगी।
रूप कुमारी का आख़िरी हर्बा भी बेकार हो गया। राम दुलारी के घर जाकर दर्याफ़्त हाल की ख़्वाहिश यकायक फ़ना हो गई। वो अब अपने घर जाएगी और मुँह ढाँप कर पड़ रहेगी। इन फटेहालों क्यों किसी के घर जाये, बोली, अभी तो मुझे फ़ुर्सत नहीं है फिर कभी आऊँगी।
क्या रात भर भी न ठहरोगी।
नहीं मेरे सर में ज़ोर का दर्द हो रहा है।
अच्छा बताओ, कब आओगी। मैं सवारी भेज दूँगी।
ख़ुद कहला भेजूँगी।
तुम्हें याद न रहेगी, साल भर हो गया। भूल कर भी न याद किया। मैं इसी इंतिज़ार में थी कि दीदी बुलाऐं तो चलूं। एक ही शहर में रहते हैं फिर भी इतनी दूर कि साल भर गुज़र जाये और मुलाक़ात न हो।
घर की फ़िकरों से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती, कई बार इरादा किया कि तुझे बुला भेजूँ मगर मौक़ा ही न मिला।
इतने में राम दुलारी के शौहर मिस्टर गुरु सेवक ने आकर बड़ी साली को सलाम किया। बिल्कुल अंग्रेज़ी वज़ा थी। कलाई पर सोने की घड़ी। आँखों पर सुनहरी ऐनक बिल्कुल अपटूडेट जैसे कोई ताज़ा दादर स्वेन हो। चेहरे से ज़हानत, मतानत और शराफ़त बरस रही थी। वो इतना ख़ुश-रू और जामा-ज़ेब है। रूप कुमारी को इस बात का गुमान भी न था।
दुआ दे कर बोली, आज यहां न आती तो तुमसे मुलाक़ात क्यों होती।
गुरु सेवक हंसकर बोला, बजा फ़रमाती हैं। उल्टी शिकायत कभी आपने बुलाया और मैं न गया।
मैं न जानती थी कि तुम अपने को मेहमान समझे हो। वो भी तुम्हारा ही घर है।
अब मान गया भाबी साहिब बे-शक मेरी ग़लती है। इनशाअल्लाह उसकी तलाफ़ी करूँगा। मगर आज हमारे घर रहिए।
नहीं आज बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं है, फिर आऊँगी लड़के घर पर घबरा रहे होंगे।
राम दुलारी बोल, मैं कितना कह कर हार गई मानती ही नहीं।
दोनों बहनें कार की पिछली सीट पर बैठ गईं। गुरु सेवक ड्राईव करता हुआ चला। ज़रा देर में उसका मकान आगया। राम दुलारी ने फिर रूप कुमारी से चलने के लिए इसरार किया मगर वो न मानी। लड़के घबरा रहे होंगे। आख़िर राम दुलारी उसे गले मिल कर अंदर चली गई। गुरसेवक ने कार बढ़ाई, रूप कुमारी ने उड़ती हुई निगाह से राम दुलारी का मकान देखा! और ठोस हक़ीक़त सलाख की तरह उसके जिगर में चुभ गई। कुछ दूर चल कर गुरु सेवक बोला,
भाबी मैंने अपने लिए कैसा अच्छा रास्ता निकाल लिया, दो-चार साल काम चल गया तो आदमी बन जाऊँगा।
रूप कुमारी ने हमदर्दाना लहजा में कहा, राम दुलारी ने मुझसे कहा। भगवान करे जहां रहो ख़ुश रहो। ज़रा हाथ पैर सँभाल कर रहना।
मैं मालिक की आँख बचा कर एक पैसा लेना भी गुनाह समझता हूँ। दौलत का मज़ा तो जब है कि ईमान सलामत रहे। ईमान खोके पैसे मिले तो क्या। मैं ऐसी दौलत पर लानत भेजता हूँ। और आँखें किस की बचाऊं। सब स्याह-सफ़ेद तो मेरे हाथ में है, मालिक तो कोई है नहीं। उसकी बेवा है। उसने सब कुछ मेरे हाथ में छोड़ रखा है, मैंने उसका कारोबार सँभाल न लिया होता तो सब कुछ चौपट हो जाता। मेरे सामने तो मालिक सिर्फ़ तीन महीने ज़िंदा रहे। मगर बड़ा मर्दुम-शनास आदमी था। मुझे सौ रुपये पर रखा और एक ही महीने में अढ़ाई सौ कर दिया। आप लोगों की दुआ से मैंने पहले ही महीने में बारह हज़ार का काम किया।
काम क्या करना पड़ता है?
वही मशीनों की एजेंसी। तरह तरह की मशीनें मंगाना और बेचना।
रूप कुमारी का मनहूस घर आगया दरवाज़े पर एक लालटेन टिमटिमा रही थी उसके शौहर बाबू उमानाथ दरवाज़े पर टहल रहे थे। रूप कुमारी उतरी मगर उसने गुरु सेवक से आने के लिए इसरार न किया, बेदिली से कहा ज़रूर। मगर ज़ोर न दिया और उमानाथ तो मुख़ातिब ही न हुए।
रूप कुमारी को वो घर अब क़ब्रिस्तान सा लग रहा था। जैसे फूटा हुआ नसीब हो न कहीं फ़र्श न फ़र्नीचर न गमले। दो-चार टूटी कुर्सियाँ, एक लंगड़ी मेज़, चार पाँच पुरानी धुरानी खाटें। यही उसके घर की बिसात थी। आज सुब्ह तक रूप कुमारी इस घर में ख़ुश थी। लेकिन अब उसे इस घर से मुतलक़ दिलचस्पी न रही। लड़के अम्मां अम्मां करके दौड़े। मगर उसने दोनों को झिड़क दिया। सर में दर्द है वो किसी से न बोलेगी। अभी तक खाना नहीं पकाया। पकाता कौन? लड़कों ने तो दूध पी लिया है मगर उमानाथ ने कुछ नहीं खाया। इसी इंतिज़ार में थे कि रूप कुमारी आए मगर रूप कुमारी के सर में दर्द है मजबूरन बाज़ार से पूरियां लानी पड़ेंगी।
रूप कुमारी ने मलामत आमेज़ अंदाज़ से कहा, तुम अब तक मेरा इंतिज़ार क्यों करते रहे मैंने खाना पकाने का ठेका तो नहीं लिया है और जो रात-भर वहीं रह जाती? आख़िर एक महराजी क्यों नहीं रख लेते। या ज़िंदगी-भर मुझी को पीसते रहोगे?
उमानाथ ने उसकी तरफ़ मज़लूम और सवाले हैरत की निगाह डाली। उसकी ब्रह्मी का कोई सबब उनको समझ न आया। रूप कुमारी से इन्होंने हमेशा बेउज्र इताअत पाई थी। बेउज्र ही नहीं खुश दिलाना भी। उन्होंने कई बार उससे महराजी रख लेने की तजवीज़ और ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी मगर उसने हमेशा यही कहा कि आख़िर मैं बैठे-बैठे क्या करूँगी? चार-पांच रुपये का ख़र्च बढ़ाने से क्या फ़ायदा, ये रक़म तो बच रहेगी तो बच्चों के लिए मक्खन आजाएगा और आज वो इतनी बेदर्दी से शिकायत कर रही है।
अपनी सफ़ाई पेश करते हुए बोले، महराजिन रखने के लिए मैंने तुमसे कई बार कहा।
तो लाकर क्यों न दिया। मैं उसे निकाल देती तो कहते।
हाँ ये ग़लती हुई।
तुमने कभी सच्चे दिल से कहा। महज़ महराजिन लेने के लिए कहा, तुम्हारे दिल में कभी मेरे आराम का ख़याल आया ही नहीं। तुम तो ख़ुश थे कि अच्छी लौंडी मिल गई है एक रोटी खाती है और चुप-चाप पड़ी रहती है। इतनी सस्ती लौंडी और कहाँ मिलती। महज़ खाने और कपड़े पर। वो भी जब घर भर की ज़रूतों से बचे। पछत्तर रुपल्लियाँ लाकर मेरे हाथ में रख देते हो और सारी दुनिया का ख़र्च। मेरा दिल ही जानता है कि मुझे कितनी कतर ब्योंत करनी पड़ती है, क्या पहनूँ किया ओढूँ। तुम्हारे साथ ज़िंदगी ख़राब हो गई। वो मर्द ही होते हैं जो बीवियों के लिए आसमान के तारे तोड़कर लाते हैं। गुरु सेवक ही को देखो। तुमसे कम पढ़ा है। उम्र में तुमसे कहीं छोटा है। मगर पाँच सौ रुपया महीना लाता है और राम दुलारी रानी बनी बैठी है, तुम्हारे लिए ये ही पछत्तर बहुत हैं। राढ़ मांड में ही ख़ुश। तुम नाहक़ मर्द हुए तुम्हें तो औरत होना चाहिये था। औरों के दिल में कैसे कैसे अर्मान होते हैं मगर मैं तो तुम्हारे लिए घर की मुर्ग़ी बासी साग हूँ। तुम्हें कोई तकलीफ़ होती ही नहीं। तुम्हें तो कपड़े भी अच्छे चाहिए, खाना भी अच्छा चाहिए क्यों कि तुम मर्द हो। बाहर से कमा कर लाते हो। मैं चाहे जैसे रहूं तुम्हारी बला से...
ये सिलसिला कई मिनट तक जारी रहा और बे चारे उमानाथ ख़ामोश सुनते रहे। अपनी दानिस्त में उन्होंने रूप कुमारी को शिकायत का कोई मौक़ा नहीं दिया, उनकी तनख़्वाह कम है ज़रूर मगर ये उनके बस की बात तो है नहीं। वो दिल लगा कर अपना काम करते हैं। अफ़सरों को ख़ुश रखने की हमेशा कोशिश करते हैं। इस साल बड़े बाबू के छोटे साहबज़ादे को छः महीने तक बिला नाग़ा पढ़ाया। इसीलिए तो वो ख़ुश हैं और अब क्या करें। रूप कुमारी की ब्रह्मी का राज़ तो उन्हें मालूम हो गया। अगर गुरु सेवक पाँच सौ रुपया लाता है तो बे-शक ख़ुशनसीब है। लेकिन दूसरों की ऊंची पेशानी देखकर अपना माथा तो नहीं फोड़ा जाता, उसे ये मौक़ा मिल गया दूसरों को ये मौके़ कहाँ मिलते हैं। वो तहक़ीक़ करेंगे कि वाक़ई उसे पाँच सौ मिलते हैं या महज़ गप है और बिलग़रज़ मिलते होंगे तो इस पर क्या रूप कुमारी को ये हक़ है कि उन्हें निशाना-ए-मलामत बनाए अगर वो इसी तरह रूप कुमारी से ज़्यादा हसीन ज़्यादा ख़ुशसलीक़ा औरत देखकर उसे कोसना शुरू कर दें तो कैसा हो। रूप कुमारी हसीन है। शीरीं ज़बान है। ख़ुश-मज़ाक़ है। बे-शक? लेकिन इससे ज़्यादा हसीन ज़्यादा शीरीं ज़बान, ज़्यादा ख़ुश मज़ाक़ औरत दुनिया में मादूम नहीं है। एक ज़माना था जब उनकी नज़रों में रूप कुमारी से ज़्यादा हसीन औरत दुनिया में न थी, लेकिन वो जुनून अब बाक़ी नहीं रहा। जज्बात की दुनिया से हक़ीक़त की दुनियामें आए उन्हें एक मुद्दत गुज़र गई अब तो उन्हें इज़दवाजी ज़िंदगी का काफ़ी तजुर्बा है। एक दूसरे के ऐब व हुनर मालूम हो गए हैं। अब तो साबिर-ओ-शाकिर रह कर ही उनकी ज़िंदगी आफ़ियत से कट सकती है। रूप कुमारी इतनी मोटी सी बात भी नहीं समझती।
फिर भी उन्हें रूप कुमारी से हमदर्दी हुई। उसकी सख़्त कलामियों का उन्होंने कुछ जवाब ना दिया। शर्बत की तरह पी गए। अपनी बहन का ठाट देखकर एक लम्हा के लिए रूप कुमारी के दिल में ऐसे दिल-शिकन, मायूसकुन, ग़ैर मुंसिफ़ाना ख़यालात का पैदा होना बिल्कुल फ़ित्री है। वो कोई फिलासफ़र नहीं। तारिकुद्दुनिया नहीं कि हरहाल में अपने तबई सुकून को क़ाएम रखे। इस तरह अपने दिल को समझा कर उमानाथ दर्याफ़्त हाल की मुहिम के लिए आमादा हो गए।
एक हफ़्ता तक रूप कुमारी हैजान की हालत में रही। बात बात पर झुँझलाती। लड़कों को डाँटती शौहर को कोसती, अपनी तक़दीर को रोती। घर का काम तो करना ही पड़ता था। वर्ना नई आफ़त आ जाती लेकिन अब किसी काम से उसे दिलचस्पी न थी। घर की जिन पुरानी धुरानी चीज़ों से उसे दिली तअल्लुक़ हो गया था जिनकी सफ़ाई और सजाट में वो मुनहमिक रहा करती थी, उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी न देखती। घर में एक ही ख़िदमतगार था। उसने जब देखा कि बहूजी ख़ुद घर की तरफ़ से लापरवाह हैं तो उसे क्या ग़रज़ थी कि सफ़ाई करता। दोनों बच्चे भी माँ से बोलते डरते थे और उमानाथ तो उसके साये से भी भागते थे। जो कुछ उनके सामने आजाता ज़हर मार कर लेते और दफ़्तर चले जाते, दफ़्तर से लौट कर दोनों बच्चों को साथ लेकर और कहीं घूमने निकल जाते। रूप कुमारी से कुछ बोलते रूह फ़ना होती थी। वहां उनकी तफ़तीश जारी थी।
एक दिन उमानाथ दफ़्तर से लौटे तो उनके साथ गुरु सेवक भी थे। रूप कुमारी ने आज कई दिन के बाद ज़माने से मसालहत करली थी और उस वक़्त से झाड़न लिए कुर्सियाँ और तिपाईयां साफ़ कर रही थी कि गुरु सेवक ने उसे अंदर पहुंच कर सलाम किया। रूप कुमारी दिल में कट गई, उमानाथ पर बेहद गु़स्सा आया। उन्हें यहां लाकर क्यों खड़ा कर दिया। न कहना न सुनना। बस बुला लाए उसे इस हालत में देखकर गुरु सेवक ने दिल में क्या समझा होगा। मगर उन्हें अक़ल आई ही कब थी। वो अपना पर्दा ढाँकती फिरती है और आप उसे खोलते फिरते हैं। ज़रा भी शर्म नहीं। जैसे बे-हयाई का जामा पहन लिया है। ख़्वामख़्वाह उसे ज़लील करते हैं।
दुआ दे कर आफ़ियत पूछी और कुर्सी रख दी। गुरु सेवक ने बैठते हुए कहा, आज भाई साहब ने मेरी दावत की है, मैं इनकी दावत पर तो न आता। लेकिन इन्होंने कहा कि तुम्हारी भाबी का सख़्त तक़ाज़ा है। तब वक़्त निकालना पड़ा।
रूप कुमारी ने बात बनाई, तुमसे उस दिन रवारवी में मुलाक़ात हुई, देखने को जी लगा हुआ था।
गुरु सेवक ने दरो-दीवार पर नज़र डाली और कहा, इस पिंजरे में तो आप लोगों को बड़ी तकलीफ़ होती होगी।
रूप कुमारी को अब मालूम हुआ कि ये कितना बद मज़ाक़ है। दूसरों के जज़्बात की उसे बिल्कुल परवाह नहीं। ये इतनी सी बात भी नहीं समझता है कि दुनिया में सभी तक़दीर वाले नहीं होते लाखों में कहीं एक ऐसा भागवान निकलता है, किसी क़दर तुर्श हो कर बोली,
पिंजरे में रहना कटघरे में रहने से अच्छा है। पिंजरे में मासूम चिड़ियां रहती हैं। कटघरे तो दरिंदों का मस्कन होता है।
गुरु सेवक किनाया न समझ सका बोला, मुझे तो इस घर में हब्स हो जाएगी। दम घुट जाये, मैं आपके लिए अपने घर के पास एक घर तय करदूंगा ख़ूब लंबा चौड़ा। आपसे कुछ किराया न लिया जाएगा। मकान हमारी मालकिन का है। मैं भी तो उसी के मकान में रहता हूँ। सैंकड़ों मकान हैं उसके पास सैंकड़ों सब मेरे इख़्तियार में हैं। जिसको जो मकान चाहूँ दे दूं। मेरे इख़्तियार में है किराया लूं या न लूं। मैं आपके लिए अच्छा सा मकान ठीक करदूंगा। जो सबसे अच्छा है मैं आपका बहुत अदब करता हूँ...
रूप कुमारी समझ गई। हज़रत इस वक़्त नशे में हैं। जब ही बहकी बहकी बातें कर रहे हैं। उनकी आँखें सिकुड़ गईं हैं। रुख़्सार कुछ फूल गए थे। ज़बान में हल्की सी लग़्ज़िश थी। जो हर लम्हा नुमायां होती जाती थी। एक जवान ख़ूबसूरत, शरीफ़ चेहरा और बेग़ैरत बन गया था। जिसे कुछ देखकर नफ़रत होती थी। उसने एक लम्हा बाद फिर बहकना शुरू किया, मैं आपका बहुत अदब करता हूँ, आप मेरी बड़ी भाभी हैं, आपके लिए मेरी जान हाज़िर है, आपके लिए मकान का इंतिज़ाम करना मेरे लिए कुछ मुश्किल नहीं। मैं मिसिज़ लोहिया का मुख़्तार हूँ। सब कुछ मेरे इख़्तियार में है सब कुछ, मैं जो कुछ कहता हूँ वो आँखें बंद कर के मंज़ूर कर लेती हैं। मुझे अपना बेटा समझती है। मैं उनकी सारी जायदाद का मालिक हूँ। मिस्टर लोहिया ने मुझे बीस रुपये का नौकर रखा था। बड़ा मालदार आदमी था मगर ये किसी को मालूम न था कि उसकी दौलत कहाँ से आती थी। किसी को मालूम नहीं। मेरे सिवा कोई जानता नहीं। वो खु़फ़िया फ़रोश है। किसी से कहना नहीं। वो खु़फ़िया फ़रोश था। कोकीन बेचता था। लाखों की आमदनी थी उसकी। मैं भी अब वही काम करता हूँ। हर शहर में हमारे एजेंट हैं। मिस्टर लोहिया ने मुझे इस फ़न में यकता कर दिया। जी हाँ, मजाल नहीं कि मुझे कोई गिरफ़्तार करले । बड़े बड़े अफ़सरों से मेरा याराना है। उनके मुँह में नोटों के पुलिंदे ठूंस ठूंस कर उनकी आवाज़ बंद कर देता हूँ। कोई चूँ नहीं कर सकता हिसाब में लिखता हूँ एक हज़ार, देता हूँ पाँच सौ बाक़ी यारों का है। बे दरेग़ रुपये आते हैं। बे दरेग़ ख़र्च करता हूँ। बुढ़िया को तो राम नाम से मतलब है। साधू संतों की सेवा में लगी रहती है और बंदा चैन करता है जितना चाहूँ ख़र्च करूँ। कोई हाथ पकड़ने वाला नहीं। कोई बोलने वाला नहीं। (जेब से एक नोटों का बंडल निकाल कर) ये आपके क़दमों का सदक़ा है मुझे दुआ दीजिए। जो ईमान और उसूल के उपासक हैं। उन्हें दौलत लात मारती है। दौलत तो उन्हें पकड़ती है जो उसके लिए अपना दीन-ईमान सब कुछ निसार करने को तैयार हैं। मुझे बुरा न कहिए। जितने दौलतमंद हैं सब लुटेरे हैं। मैं भी उन्हीं में एक हूँ। कल मेरे पास रुपये हो जाएं और मैं एक धर्मशाला बनवा दूं। फिर देखिए मेरी कितनी वाह वाह होती है। कौन पूछता है। मुझे ये दौलत कहाँ से मिली। एक वकील घंटा भर बहस करके एक हज़ार सीधा कर लेता है। एक डाक्टर ज़रा सा नश्तर लगा कर पाँच सौ रुपया मार लेता है। अगर उनकी आमदनी जायज़ है तो मेरी आमदनी भी जायज़ है। जी हाँ जायज़ है। ज़रूरतमंदों को लूट कर मालदार हो जाना हमारी सोसाइटी का पुराना दस्तूर है। मैं भी वही करता हूँ जो दूसरे करते हैं। ज़िंदगी का मक़सद है ऐश करना। मैं भी लूटूँगा। ऐश करूँगा और ख़ैरात करूँगा। एक दिन लीडर बन जाऊँगा। कहिए तो गिनवा दूं। यहां कितने लोग जुआ खेल कर करोड़पती हो गए। कितने औरतों का बाज़ार लगा कर करोड़पती हो गए।
उमानाथ ने आगे कहा, मिस्टर गुरु सेवक क्या कर रहे हो। चलो चाय पी लो। ठंडी हो रही है।
गुरु सेवक उठा। पैर लड़खड़ाए और ज़मीन पर गिर पड़ा। फिर संभल कर उठा और झूमता-झामता ठोकरें खाता बाहर चला गया। रूप कुमारी ने आज़ादी का सांस लिया। यहां बैठे-बैठे उसका दम घुट रहा था। कमरे की हवा जैसे कुछ भारी हो गई थी। जो तरग़ीबें कई दिन से अच्छे अच्छे दिल-आवेज़ रूप भर कर उसके सामने आरही थीं। आज उसे उनकी असली मकरूह घिनावनी सूरत नज़र आई। जिस सादगी, ख़ुलूस और ईसार की फ़िज़ा में अब तक ज़िंदगी गुज़र ही थी उसमें हरामकारी और आबला फ़रेबी का गुज़र न था। इन दामों में वो दुनिया की सारी दौलत और सारे ऐश भी ख़रीदने को आमादा न हो सकती थी। अब वो राम दुलारी की तक़दीर से अपनी तक़दीर का बदला न करेगी। वो अपने हाल में ख़ुश है। राम दुलारी पर उसे रहम आया। जो नुमूद व नुमाइश के लिए अपने ज़मीर का ख़ून कर रही है। मगर एक ही लम्हा में गुरु सेवक की तरफ़ से उसका दिल नर्म पड़ गया। जिस सोसाइटी में दौलत पुजती है जहां इन्सान की क़ीमत उसके बैंक एकाऊंट और शान-ओ-शौकत से आँकी जाती है। जहां क़दम क़दम पर तरग़ीबों का जाल बिछा हुआ है और सोसाइटी का निज़ाम इतना बेढंगा है कि इन्सान की हद, ग़ज़ब और फ़िरोमायगी के जज़्बात को उकसाता रहता है। वहां गुरु सेवक अगर रौ में बह जाये तो ताज्जुब का मुक़ाम नहीं।
उस वक़्त उमानाथ ने आकर कहा, यहां बैठा बैठा क्या बक रहा था। मैंने तो उसे रुख़्सत कर दिया। जी डरता था कहीं उसके पीछे पुलिस न लगी हो। कहीं मैं नाकर्दा गुनाह में पकड़ा न जाऊंगा।
रूप कुमारी ने उसकी तरफ़ माज़रत ख़्वाहाना नज़र से देखकर जवाब दिया, वही अपनी खु़फ़िया फ़रोशी का ज़िक्र कर रहा था।
मुझे भी मिसेज़ लोहिया से मिलने की दावत दे गया है। शायद कोई अच्छी जगह मिल जाये।
जी नहीं, आप कलर्की किए जाइए, इसी में आपकी ख़ैरियत है।
मगर क्लर्की में ऐश कहाँ। क्यों न साल भर की रुख़्सत लेकर ज़रा उधर का भी लुत्फ़ उठाऊं।
मुझे अब वो हवस नहीं रही।
मैं तुमसे आकर ये क़िस्सा कहता तो तुम्हें यक़ीन न आता।
हाँ यक़ीन तो न आता। मैं तो क़यास भी न कर सकती कि अपने फ़ायदे के लिए कोई आदमी दुनिया को ज़हर खिला सकता है।
मुझे सारा क़िस्सा मालूम हो गया था। मैंने उसे ख़ूब शराब पिला दी कि नशे में बहकने लगे और सब कुछ ख़ुद क़ुबूल करेगा।
ललचाई तो तुम्हारी तबीयत भी थी।
हाँ ललचाई तो है मगर ऐब करने के लिए जिस हुनर की ज़रूरत है वो कहाँ से लाऊँगा?
ईश्वर न करे वो हुनर तुम में आए, मुझे तो उस बेचारे पर तरस आता है, मालूम नहीं रास्ते में उस पर क्या गुज़र है?
नहीं वो तो अपनी कार पर थे।
रूप कुमारी एक मिनट तक ज़मीन की तरफ़ देखती रही फिर बोली,
तुम मुझे दुलारी के घर पहुंचा दो अभी, शायद मैं उसकी मदद कर सकूँ। जिस बाग़ की वो सैर कर रही है उसके चारों तरफ़ दरिंदे घात लगाए बैठे हैं। शायद मैं उसे बचा सकूँ।
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