भंगन
स्टोरीलाइन
एक संदेह के कारण पति-पत्नी के बीच हुई तकरार पर आधारित कहानी। वह जब रात को पत्नी के पास जाता है तो पत्नी नाराज़़गी में उसे अपने से दूर कर देती है। वह उसे मनाने की कोशिश करता है, पर वह लगातार उससे नाराज़़ रहती है। आख़िर में जब वह पूछती है कि उसने सुबह भंगन को अपनी बाँहों में क्यों लिया था तो पति बताता है कि वह गर्भवती थी और बेहोश हो कर गिरने वाली थी। उसने तो बस उसे गिरने से बचाने के लिए सँभाल लिया था। पत्नी यह सुनकर ख़ुश हो गई।
“परे हटिए।”
“क्यों?”
“मुझे आप से बू आती है।”
“हर इंसान के जिस्म की एक ख़ास बू होती है। आज बीस बरसों के बाद तुम्हें इससे तनफ़्फ़ुर क्यों महसूस होने लगा?”
“बीस बरस... अल्लाह ही जानता है कि मैंने इतना तवील अ’र्सा कैसे बसर किया है।”
“मैंने कभी आपको इस अ’र्से में तकलीफ़ पहुंचाई?”
“जी कभी नहीं।”
“तो फिर आज अचानक आपको मुझसे ऐसी बू क्यों आने लगी जिससे आपकी नाक जो माशा-अल्लाह काफ़ी बड़ी है, उतनी ग़ज़बनाक हो रही है?”
“आप अपनी नाक तो देखिए... पकौड़ा सी है।”
“मैं इससे इनकार नहीं करता... पकौड़े, तुम जानती हो, मुझे बहुत पसंद हैं।”
“आपको तो हर वाहियात चीज़ पसंद होती है... कूड़े करकट में भी आप दिलचस्पी लेते हैं।”
“कूड़ा करकट हमारा ही तो फैलाया हुआ होता है... इससे आदमी दिलचस्पी क्यों न ले... और तुम जानती हो, आज से दस साल पहले जब तुम्हारी हीरे की अँगूठी गुम हो गई थी तो इसी कूड़े के ढेर से मैंने तुम्हें तलाश कर के दी थी।”
“बड़ा करम किया था आपने मुझ पर।”
“भई करम का सवाल नहीं... फ़ारसी का एक शे’र है।”
ख़ाक-सारां रा ब हक़ारत मंगर
तो चे दानी कि दरीं गर्द सवारे बाशद
“मैं ख़ाक भी नहीं समझी।”
“यही वजह है कि तुमने अभी तक मुझे नहीं समझा... वर्ना बीस बरस एक आदमी को पहचानने के लिए काफ़ी होते हैं।”
“इन बीस बरसों में आपने कौन सा सुख पहुंचाया है मुझे?”
“तुम दुख की बात करो... बताओ मैंने कौन सा दुख तुम्हें इस अ’र्से में पहुंचाया?”
“एक भी नहीं।”
“तो फिर ये कहने का क्या मतलब था, इन बीस बरसों में आपने कौन सा सुख पहुंचाया है मुझे?”
“आप मेरे क़रीब न आईए... मैं सोना चाहती हूँ।”
“इस ग़ुस्से में नींद आ जाएगी तुम्हें?”
ख़ाक आएगी... बहरहाल, आँखें बंद कर के लेटी रहूंगी और...”
“और क्या करेंगी?”
“लेटी उस रोज़ पर आँसू बहाऊँगी जब मैं आपके पले बांधी गई।”
“तुम्हें याद है वो दिन क्या था, सन क्या था, वक़्त क्या था?”
“मैं कभी वो दिन भूल सकती हूँ... ख़ुदा करे वो किसी लड़की पर न आए।”
“तुम बता तो दो... मैं तुम्हारी याददाश्त का इम्तहान लेना चाहता हूँ।”
“अब आप मेरा इम्तहान क्या लेंगे... परे हटिए, मुझे आपसे बू आ रही है।”
“भई हद हो गई है... तुम्हारी इतनी लंबी नाक जो कहीं ख़त्म होने ही में नहीं आती, इसको आख़िर क्या हो गया है? मुझसे तो उसको बड़ी भीनी-भीनी ख़ुशबू आना चाहिए। तुमने मुझसे इन बीस बरसों में हज़ारों मर्तबा कहा कि आप जब किसी कमरे में दाख़िल हों और वहां से निकल जाएं तो मैं पहचान जाया करती हूँ कि आप वहां आए थे।”
“आप झूट बोल रहे हैं।”
“देखो, मैंने अपनी ज़िंदगी में आज तक झूट नहीं बोला, तुम मुझ पर ये इल्ज़ाम न धरो।”
वाह जी वाह, बड़े आए आप कहीं के सच्चे... मेरा सौ रुपये का नोट आपने चुराया और साफ़ मुकर गए।”
“ये कब की बात है?”
“दो जून सन् उन्नीस सौ बयालीस को, जब सलमा मेरे पेट में थी।”
“ये तारीख़ तुम्हें ख़ूब याद रही।”
“क्यों याद न रहती। जब आप से मेरी इतनी ज़बरदस्त लड़ाई हुई थी। मैं अंदर कमरे में पड़ी थी। आप ने चाबी बड़ी सफ़ाई से मेरे तकिए के नीचे से निकाली। दूसरे कमरे में जा कर अलमारी खोली और उसमें जो सात सौ पड़े थे, उनमें से एक नोट उड़ा कर ले गए। मैंने जब दो ढाई घंटों के बाद उठ कर देखा तो आप से चख़ हुई, मगर आप थे कि परों पर पानी ही नहीं लेते थे। आख़िर मैं ख़ामोश हो गई।”
“ये दो जून सन् उन्नीस सौ बयालीस की बात है, आजकल सन् चव्वन चल रहा है। अब इसके ज़िक्र का क्या फ़ायदा?”
“फ़ायदा तो हर हालत में आप ही का रहता है... मेरी एक नीलम की अँगूठी भी आपने ग़ायब कर दी थी, लेकिन मैंने आप से कुछ नहीं कहा था।”
“देखो, मैं तुम्हारी जान की क़सम खा कर कहता हूँ। उस नीलम की अँगूठी के मुतअ’ल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं।”
“और उस सौ रुपये के नोट के मुतअ’ल्लिक़।”
“अब तुम्हारी जान की क़सम खाई तो सच बताना ही पड़ेगा। मैंने... मैंने चुराया ज़रूर था, मगर सिर्फ़ इसलिए कि उस महीने मुझे तनख़्वाह देर से मिलने वाली थी और तुम्हारी सालगिरह थी। तुम्हें कोई तोहफ़ा तो देना था। इन बीस बरसों में तुम्हारी हर सालगिरह पर में अपनी इस्तेताअ’त के मुताबिक़ कोई न कोई तोहफ़ा पेश करता रहा हूँ।”
“बड़े तोहफ़े तहाइफ़ दिए हैं आपने मुझे।”
“नाशुक्री तो न बनो!”
“मैं कई दफ़ा कह चुकी हूँ, आप परे हट जाईए, मुझे आपसे बू आती है।”
“किस की?”
“ये आपको मालूम होना चाहिए।”
“मैंने ख़ुद को कई मर्तबा सूँघा है, मगर मेरी पकौड़ा ऐसी नाक में ऐसी कोई बू नहीं घुसी जिस पर किसी बीवी को ए’तराज़ हो सके।”
“आप बातें बनाना ख़ूब जानते हैं।”
“और बातें बिगाड़ना तुम। मेरी समझ में नहीं आता, आज तुम इस क़दर नाराज़ क्यों हो?”
“अपने गिरेबान में मुँह डाल कर देखिए!”
“मैं इस वक़्त क़मीज़ पहने नहीं हूँ।”
“क्यों?”
“सख़्त गर्मी है।”
“सख़्त गर्मी हो या नर्म... आपको क़मीज़ तो नहीं उतारना चाहिए थी। ये कोई शराफ़त नहीं।”
“मोहतरमा! आपने भी तो क़मीज़ उतार रखी है... अपने नंगे बदन को मुलाहिज़ा फ़रमाईए।”
“ओह, ये मैंने क्या वाहियातपन किया है!”
“ये वाहियातपन तो आप गर्मियों में बीस बरस से कर रही हैं।”
“आप झूट बोलते हैं।”
“ख़ैर, झूट तो हर मर्द की आदत होती है।”
“आप मुझसे दूर ही रहें।”
“क्यों?”
“तौबा, लाख बार कह चुकी हूँ कि मुझे आपसे बहुत गंदी बू आ रही है।”
“पहले सिर्फ़ बू थी, अब गंदी हो गई।”
“ख़बरदार! जो आपने मुझे हाथ लगाया!”
“इस क़दर बेज़ारी आख़िर क्यों?”
“मैं अब आपसे क़तअ’न बेज़ार हो चुकी हूँ।”
“इन बीस बरसों में तुमने कभी ऐसी बेज़ारी का इज़हार नहीं किया था।”
“अब तो कर दिया है!”
“लेकिन मुझे मालूम तो हो कि इसकी वजह क्या है?”
“मैं कहती हूँ, मुझे मत छुईए!”
“तुम्हें मुझसे इतनी कराहत क्यों हो रही है?”
“आप नापाक हैं, बेहद ज़लील हैं।”
“देखो, तुम बहुत ज़्यादती कर रही हो।”
“आप ने कम की है। कोई शरीफ़ आदमी आपकी तरह ऐसी ज़लील हरकत नहीं कर सकता था।”
“कौन सी?”
“आज सुबह क्या हुआ था?”
“आज सुबह... बारिश हुई थी।”
“बारिश हुई थी, लेकिन उस बारिश में आपने किसको अपनी आग़ोश में दबाया हुआ था?”
“ओह।”
“बस, इसका जवाब अब ‘ओह’ ही होगा। मैंने पकड़ जो लिया था आपको।”
“देखो मेरी जान...”
“मुझे अपनी जान-वान मत कहिए, आपको शर्म आनी चाहिए।”
“किस बात पर, किस गुनाह पर?”
“मैं कहती हूँ आदमी गुनाह करे लेकिन ऐसी गंदगी में न गिरे।”
“मैं किस गंदगी में गिरा हूँ?”
“आज सुबह आपने उस... उस...”
“क्या?”
“उस भंगन को... जवान भंगन को जो मिठाई वाले के साथ भाग गई थी।”
“ला-हौल वला.... तुम भी अ’जीब औरत हो, वो ग़रीब हामिला है। बारिश में झाड़ू देते हुए उसको ग़श आया और गिर पड़ी। मैंने उसको उठाया और उसके क्वार्टर में ले गया।”
“फिर क्या हुआ?”
“तुम्हें मालूम नहीं कि वो मर गई?”
“हाय, बेचारी... मैं तो ठंडी बर्फ़ हो गई हूँ।”
“मेरे क़रीब आ जाओ, मैं क़मीज़ पहन लूं?”
“इसकी क्या ज़रूरत है, तुम्हारी क़मीज़ मैं हूँ।”
- पुस्तक : سرکنڈوں کے پیچھے
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