दीवाना शायर
स्टोरीलाइन
यह अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में हुए हत्याकांड पर आधारित कहानी है। उस हत्याकांड के बाद शहर में बहुत कुछ बदला था। उससे कई इंक़लाबी लोग पैदा हुए थे और बहुतों ने बदले के लिए अपनी जानें क़ुर्बान की थीं। उन्हीं लोगों में एक इंक़लाबी शायर भी हुआ था, जिसकी शायरी दिल चीर देने वाली थी। एक रोज़ शाम को लेखक को वह दीवाना शायर बाग़ के एक कुएँ के पास मिला था, जहाँ उसने उससे अपने इंक़लाबी हो जाने की दास्तान बयान की थी।
[अगर मुक़द्दस हक़ दुनिया की मुतजस्सिस निगाहों से ओझल कर दिया जाये तो रहमत हो उस दीवाने पर जो इंसानी दिमाग़ पर सुनहरा ख़्वाब तारी कर दे।]
(हकीम गोर्की)
मैं आहों का ब्योपारी हूँ,
लहू की शायरी मेरा काम है,
चमन की मांदा हवाओ!
अपने दामन समेट लो... कि
मेरे आतिशीं गीत,
दबे हुए सीनों में एक तलातुम बरपा करने वाले हैं।
ये बेबाक नग़्मा दर्द की तरह उठा, और बाग़ की फ़िज़ा में चंद लम्हे थरथरा कर डूब गया। आवाज़ में एक क़िस्म की दीवानगी थी... नाक़ाबिल-ए-बयान, मेरे जिस्म पर कपकपी तारी हो गई। मैंने आवाज़ की जुस्तुजू में इधर-उधर निगाहें उठाईं। सामने चबूतरे के क़रीब घास के तख़्ते पर चंद बच्चे अपनी मामाओं के साथ खेल कूद में मह्व थे, पास ही दो तीन गंवार बैठे हुए थे। बाएं तरफ़ नीम के दरख़्तों के नीचे माली ज़मीन खोदने में मसरूफ़ था। मैं अभी इसी जुस्तुजू में ही था कि वही दर्द में डूबी हुई आवाज़ फिर बुलंद हुई;
मैं उन लाशों का गीत गाता हूँ,
जिनकी सर्दी दिसंबर मुस्तआ’र लेता है।
मेरे सीने से निकली हुई आह
वो लू है जो जून के महीने में चलती है।
मैं आहों का ब्योपारी हूँ।
लहू की शायरी मेरा काम है...
आवाज़ कुएं के अ’क़ब से आ रही थी। मुझ पर एक रिक़्क़त सी तारी हो गई। मैं ऐसा महसूस करने लगा कि सर्द और गर्म लहरें ब-यक-वक़्त मेरे जिस्म से लिपट रही हैं। इस ख़याल ने मुझे किसी क़दर ख़ौफ़ज़दा कर दिया कि आवाज़ उस कुएं के क़रीब से बुलंद हो रही है जिसमें आज से कुछ साल पहले लाशों का अंबार लगा हुआ था। इस ख़याल के साथ ही मेरे दिमाग़ में जलियांवाला बाग़ के ख़ूनी हादिसे की एक तस्वीर खिच गई।
थोड़ी देर के लिए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि बाग़ में फ़िज़ा गोलियों की सनसनाहट और भागते हुए लोगों की चीख़ पुकार से गूंज रही है। मैं लरज़ गया। अपने काँधों को ज़ोर से झटका दे कर और इस अ’मल से अपने ख़ौफ़ को दूर करते हुए मैं उठा और कुएं का रुख़ किया।
सारे बाग़ पर एक पुरइसरार ख़ामोशी छाई हुई थी। मेरे क़दमों के नीचे ख़ुश्क पत्तों की सरसराहट सूखी हुई हड्डियों के टूटने की आवाज़ पैदा कर रही थी। कोशिश के बावजूद मैं अपने दिल से वो नामालूम ख़ौफ़ दूर न कर सका जो उस आवाज़ ने पैदा कर दिया था। हर क़दम पर मुझे यही मालूम होता था कि घास के सरसब्ज़ बिस्तर पर बेशुमार लाशें पड़ी हुई हैं जिनकी बोसीदा हड्डियां मेरे पांव के नीचे टूट रही हैं। यकायक मैंने अपने क़दम तेज़ किए और धड़कते हुए दिल से उस चबूतरे पर बैठ गया जो कुएं के इर्दगिर्द बना हुआ था।
मेरे दिमाग़ में बार बार ये अ’जीब सा शे’र गूंज रहा था;
मैं आहों का ब्योपारी हूँ
लहू की शायरी मेरा काम है
कुएं के क़रीब कोई मुतनफ़्फ़िस मौजूद न था। मेरे सामने छोटे फाटक की साथ वाली दीवार पर गोलियों के निशान थे। चौकोर जाली मंधी हुई थी। मैं इन निशानों को बीसियों मर्तबा देख चुका था। मगर अब वो निशान जो मेरी निगाहों के ऐ’न बिल-मुक़ाबिल थे, दो ख़ूनीं आँखें मालूम होती थीं। जो दूर... बहुत दूर किसी ग़ैर मरई चीज़ को टकटकी लगाए देख रही हों। बिला इरादा मेरी निगाहें उन दो चश्म नुमा सूराखों पर जम कर रह गईं।
मैं उनकी तरफ़ मुख़्तलिफ़ ख़यालात में खोया हुआ ख़ुदा मालूम कितने अर्से तक देखता रहा कि दफ़अ’तन पास वाली रविश पर किसी के भारी क़दमों की चाप ने मुझे उस ख़्वाब से बेदार कर दिया। मैंने मुड़ कर देखा गुलाब की झाड़ियों से एक दराज़ क़द आदमी सर झुकाए मेरी तरफ़ बढ़ रहा था।
उसके दोनों हाथ उसके बड़े कोट की जेबों में ठुँसे हुए थे। चलते हुए वो ज़ेर-ए-लब कुछ गुनगुना रहा था। कुएं के क़रीब पहुंच कर वो यकायक ठिटका और गर्दन उठा कर मेरी तरफ़ देखते हुए कहा,“पानी पियूंगा।”
मैं फ़ौरन चबूतरे पर से उठा और पंप का हैंडल हिलाते हुए उस अजनबी से कहा, “आईए।”
अच्छी तरह पानी पी चुकने के बाद उसने अपने कोट की मैली आस्तीन से मुँह पोंछा और वापस चलने को ही था कि मैंने धड़कते हुए दिल से दरयाफ़्त किया,“क्या अभी अभी आप ही गा रहे थे?”
“हाँ, मगर आप क्यों दरयाफ़्त कर रहे हैं?” ये कहते हुए उसने अपना सर फिर उठाया। उसकी आँखें जिनमें सुर्ख़ डोरे ग़ैर-मामूली तौर पर नुमायां थे, मेरी क़ल्बी वारदात का जायज़ा लेती हुई मालूम हो रही थीं। मैं घबरा गया।
“आप ऐसे गीत न गाया करें... ये सख़्त ख़ौफ़नाक हैं।”
“ख़ौफ़नाक! नहीं, इन्हें हैबतनाक होना चाहिए। जबकि मेरे राग के हर सुर में रिस्ते हुए ज़ख़्मों की जलन और रुकी हुई आहों की तपिश मस्तूर है। मालूम होता है कि मेरे शोलों की ज़बानें आपकी बरफ़ाई हुई रूह को अच्छी तरह चाट नहीं सकीं।” उसने अपनी नोकीली ठोढ़ी को उंगलियों से खुजलाते हुए कहा, “ये अलफ़ाज़ उस शोर के मुशाबेह थे जो बर्फ़ के ढेले में तप्ती हुई सलाख गुज़ारने से पैदा होता है।”
“आप मुझे डरा रहे हैं?”
मेरे ये कहने पर उस मर्द-ए-अ’जीब के हलक़ से एक क़हक़हा नुमा शोर बुलंद हुआ, “हा, हा, हा,... आप डर रहे हैं। क्या आपको मालूम नहीं कि आप इस वक़्त उस मुंडेर पर खड़े हैं जो आज से कुछ अ’र्सा पहले बेगुनाह इंसानों के ख़ून से लिथड़ी हुई थी। ये हक़ीक़त मेरी गुफ़्तुगू से ज़्यादा वहशत ख़ेज़ है।”
ये सुन कर मेरे क़दम डगमगा गए, मैं वाक़ई ख़ूनीं मुंडेर पर खड़ा था। मुझे ख़ौफ़ज़दा देख कर वो फिर बोला,“थर्राई हुई रगों से बहा हुआ लहू कभी फ़ना नहीं होता... इस ख़ाक के ज़र्रे ज़र्रे में मुझे सुर्ख़ बूंदें तड़पती नज़र आ रही हैं। आओ, तुम भी देखो!”
ये कहते हुए उसने अपनी नज़रें ज़मीन में गाड़ दीं। मैं कुएं पर से नीचे उतर आया और उसके पास खड़ा हो गया। मेरा दिल धक-धक कर रहा था। दफ़अ’तन उसने अपना हाथ मेरे कांधे पर रखा और बड़े धीमे लहजे में कहा, “मगर तुम इसे नहीं समझ सकोगे... ये बहुत मुश्किल है!”
मैं उसका मतलब बख़ूबी समझ रहा था। वो ग़ालिबन मुझे उस ख़ूनी हादिसे की याद दिला रहा था जो आज से सोलह साल क़ब्ल इस बाग़ में वाक़ा हुआ था। इस हादिसे के वक़्त मेरी उम्र क़रीबन पाँच साल की थी। इसलिए मेरे दिमाग़ में उसके बहुत धुंदले नुक़ूश बाक़ी थे लेकिन मुझे इतना ज़रूर मालूम था कि इस बाग़ में अ’वाम के एक जलसे पर गोलियां बरसाई गई थीं जिसका नतीजा क़रीबन दो हज़ार अम्वात थीं। मेरे दिल में उन लोगों का बहुत एहतराम था जिन्होंने अपनी मादर-ए-वतन और जज़्बा-ए-आज़ादी की ख़ातिर अपनी जानें क़ुर्बान कर दी थीं।
बस इस एहतराम के इलावा मेरे दिल में हादिसे के मुतअ’ल्लिक़ और कोई ख़ास जज़्बा न था। मगर आज इस मर्द-ए-अ’जीब की गुफ़्तुगू ने मेरे सीने में एक हैजान सा बरपा कर दिया। मैं ऐसा महसूस करने लगा कि गोलियां तड़ातड़ बरस रही हैं और बहुत से लोग वहशत के मारे इधर उधर भागते हुए एक दूसरे पर गिर कर मर रहे हैं। इस असर के तहत मैं चिल्ला उठा।
“मैं समझता हूँ... मैं सब कुछ समझता हूँ। मौत भयानक है, मगर ज़ुल्म इससे कहीं ख़ौफ़नाक और भयानक है!”
ये कहते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने सब कुछ कह डाला है और मेरा सीना बिल्कुल ख़ाली रह गया है। मुझ पर एक मुर्दनी सी छा गई। ग़ैर इरादी तौर पर मैंने उस शख़्स के कोट को पकड़ लिया और थराई हुई आवाज़ में कहा,“आप कौन हैं?... आप कौन हैं?”
“आहों का ब्योपारी... एक दीवाना शायर।”
“आहों का ब्योपारी! दीवाना शायर!” उसके अलफ़ाज़ ज़ेरे लब गुनगुनाते हुए मैं कुएं के चबूतरे पर बैठ गया। उस वक़्त मेरे दिमाग़ में इस दीवाने शायर का गीत गूंज रहा था। थोड़ी देर के बाद मैंने अपना झुका हुआ सर उठाया। सामने सपेदे के दो दरख़्त हैबतनाक देवों की तरह अंगड़ाईआं ले रहे थे।
पास ही चम्बेली और गुलाब की ख़ारदार झाड़ियों में हवा आहें बिखेर रही थी। दीवाना शायर ख़ामोश खड़ा सामने वाली दीवार की एक खिड़की पर निगाहें जमाए हुए था! शाम के ख़ाकिस्तरी धुंदलके में वो एक साया सा मालूम हो रहा था। कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद वो अपने ख़ुश्क बालों को उंगलियों से कंघी करते हुए गुनगुनाया।
“आह! ये सब कुछ ख़ौफ़नाक हक़ीक़त है, किसी सहरा में जंगली इंसान के पैरों के निशानात की तरह ख़ौफ़नाक!”
“क्या कहा?”
मैं उन अलफ़ाज़ को अच्छी तरह सुन न सका था, जो उसने मुँह ही मुँह में अदा किए थे।
“कुछ भी नहीं।” ये कहते हुए वो मेरे पास आकर चबूतरे पर बैठ गया।
“मगर आप गुनगुना रहे थे।”
इस पर उसने अपनी आँखें एक अ’जीब अंदाज़ में सुकेड़ीं और हाथों को आपस में ज़ोर ज़ोर से मलते हुए कहा, “सीने में क़ैद किए हुए अलफ़ाज़ बाहर निकलने के लिए मुज़्तरिब होते हैं। अपने आप से बोलना उस उलूहियत से गुफ़्तुगू करना है जो हमारे दिल की पहनाइयों में मस्तूर होती है।” फिर साथ ही गुफ़्तुगू का रुख़ बदलते हुए, “क्या आपने उस खिड़की को देखा है?”
उसने अपनी उंगली उस खिड़की की तरफ़ उठाई जिसे वो चंद लम्हा पहले टकटकी बांधे देख रहा था। मैंने उस जानिब देखा। छोटी सी खिड़की थी जो सामने दीवार की ख़स्ता ईंटों में सोई हुई मालूम होती थी।
“ये खिड़की जिसका डंडा नीचे लटक रहा है?” मैंने उससे कहा।
“हाँ यही, जिसका एक डंडा नीचे लटक रहा है। क्या तुम इस पर उस मासूम लड़की के ख़ून के छींटे नहीं देख रहे हो जिसको सिर्फ़ इसलिए हलाक किया गया था कि तरकश-ए-इस्तिबदाद को अपने तीरों की क़ुव्वत-ए-परवाज़ का इम्तहान लेना था... मेरे अज़ीज़! तुम्हारी उस बहन का ख़ून ज़रूर रंग लाएगा। मेरे गीतों के ज़ेर-ओ-बम में उस कमसिन रूह की फड़फड़ाहट और उसकी दिलदोज़ चीख़ें हैं।
ये सुकून के दामन को तार तार करेंगे, एक हंगामा होगा। सीना-ए-गीती शिक़ हो जाएगा। मेरी बे-लगाम आवाज़ बलंद से बलंदतर होती जाएगी... फिर क्या होगा? फिर क्या होगा? ये मुझे मालूम नहीं। आओ, देखो, इस सीने में कितनी आग सुलग रही है!”
ये कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ा और उसे कोट के अंदर ले जा कर अपने सीने पर रख दिया। उस के हाथों की तरह उसका सीना भी ग़ैरमामूली तौर पर गर्म था। उस वक़्त उसकी आँखों के डोरे बहुत उभरे हुए थे। मैंने अपना हाथ हटा लिया और काँपती हुई आवाज़ में कहा,“आप अ’लील हैं। क्या मैं आपको घर छोड़ आऊं?”
“नहीं मेरे अ’ज़ीज़, मैं अ’लील नहीं हूँ।” उसने ज़ोर से अपने सर को हिलाया, “ये इंतक़ाम है जो मेरे अंदर गर्म सांस ले रहा है। मैं इस दबी हुई आग को अपने गीतों के दामन से हवा दे रहा हूँ कि ये शोलों में तबदील हो जाये।”
“ये दुरुस्त है मगर आपकी तबीयत वाक़िअ’तन ख़राब है। आपके हाथ बहुत गर्म हैं। इस सर्दी में आप को ज़्यादा बुख़ार हो जाने का अंदेशा है।”
उसके हाथों की ग़ैरमामूली गर्मी और आँखों में उभरे हुए सुर्ख़ डोरे साफ़ तौर पर ज़ाहिर कर रहे थे कि उसे काफ़ी बुख़ार है।
उसने मेरे कहने की कोई पर्वा न की और जेबों में हाथ ठूंस कर मेरी तरफ़ बड़े ग़ौर से देखते हुए कहा,“ये क्योंकर मुम्किन हो सकता है कि लकड़ी जले और धूवां न दे। मेरे अ’ज़ीज़! इन आँखों ने ऐसा समां देखा है कि उन्हें उबल कर बाहर आना चाहिए था। क्या कह रहे थे कि मैं अ’लील हूँ... हा, हा, हा, अ’लालत... काश कि सब लोग मेरी तरह अ’लील होते। जाईए, आप ऐसे नाज़ुक मिज़ाज मेरी आहों के ख़रीदार नहीं हो सकते।”
“मगर...”
“मगर वगर कुछ नहीं।” वो दफ़अ’तन जोश में चिल्लाने लगा, “इंसानियत के बाज़ार में सिर्फ़ तुम लोग बाक़ी रह गए हो, जो खोखले क़हक़हों और फीके तबस्सुमों के ख़रीदार हो। एक ज़माने से तुम्हारे मज़लूम भाईयों और बहनों की फ़लक शिगाफ़ चीख़ें तुम्हारे कानों से टकरा रही हैं। मगर तुम्हारी ख़्वाबीदा समाअ’त में इर्तिआ’श पैदा नहीं हुआ। आओ, अपनी रूहों को मेरी आहों की आंच दो। ये उन्हें हस्सास बना देगी।”
मैं उसकी गुफ़्तुगू को ग़ौर से सुन रहा था। मैं हैरान था, कि वो चाहता क्या है और उसके ख़यालात इस क़दर परेशान व मुज़्तरिब क्यों हैं। बेशतर औक़ात मैंने ख़याल किया कि शायद वो पागल है। उसकी गुफ़्तगू बामा’नी ज़रूर थी। मगर लहजे में एक अ’जीब क़िस्म की दीवानगी थी। उसकी उम्र यही कोई पच्चीस-तीस बरस के क़रीब होगी, दाढ़ी के बाल जो एक अ’र्सा से मूंडे न गए थे। कुछ इस अंदाज़ में उसके चेहरे पर उगे हुए थे कि मालूम होता था, किसी ख़ुश्क रोटी पर बहुत सी च्यूंटियां चिमटी हुई हैं। गाल अंदर को पिचके हुए, माथा बाहर की तरफ़ उभरा हुआ।
नाक नोकीली, आँखें बड़ी जिनसे वहशत टपकती थी। सर पर ख़ुश्क और ख़ाक-आलूदा बालों का एक हुजूम। बड़े से भूरे कोट में वो वाक़ई शायर मालूम हो रहा था... एक दीवाना शायर, जैसा कि उसने ख़ुद इस नाम से अपने आपको मुतआ’रिफ़ कराया था।
मैंने अक्सर औक़ात अख़बारों में एक जमा’त का हाल पढ़ा था। उस जमा’त के ख़यालात दीवाने शायर के ख़यालात से बहुत हद तक मिलते जुलते थे। मैंने ख़याल किया कि शायद वो भी उसी जमा’त का रुक्न है।
“आप इन्क़लाबी मालूम होते हैं।”
इस पर वो खिलखिला कर हंस पड़ा, “आपने ये बहुत बड़ा इन्किशाफ़ किया है। मियां, मैं तो कोठों की छतों पर चढ़ चढ़ कर पुकारता हूँ, मैं इन्क़लाबी हूँ, मैं इन्क़लाबी हूँ। मुझे रोक ले जिससे बन पड़ता है। आपने वाक़ई बहुत बड़ा इन्किशाफ़ किया है।”
ये कह कर हंसते हुए वो अचानक संजीदा हो गया।
“स्कूल के एक तालिब-ए-इल्म की तरह इन्क़लाब के हक़ीक़ी मआ’नी से तुम भी ना-आश्ना हो, इन्क़लाबी वो है जो हर नाइंसाफ़ी और हर ग़लती पर चिल्ला उठे। इन्क़लाबी वो है जो सब ज़मीनों, सब आसमानों, सब ज़बानों और सब वक़्तों का एक मुजस्सम गीत हो। इन्क़लाबी, समाज के क़स्साब ख़ाने की एक बीमार और फ़ाक़ों मरी भीड़ नहीं वो एक मज़दूर है तनोमंद, जो अपने आहनी हथौड़े की एक ज़र्ब से ही अर्ज़ी जन्नत के दरवाज़े वा कर सकता है। मेरे अ’ज़ीज़! ये मंतिक़, ख़्वाबों और नज़रियों का ज़माना नहीं, इन्क़लाब एक ठोस हक़ीक़त है, ये यहां पर मौजूद है। उसकी लहरें बढ़ रही हैं। कौन है जो अब इसको रोक सकता है। ये बंद बांधने पर न रुक सकेंगी!”
उसका हर लफ़्ज़ हथौड़े की उस ज़र्ब की मानिंद था जो सुर्ख़ लोहे पर पड़ कर उसकी शक्ल तबदील कर रहा हो। मैंने महसूस किया कि मेरी रूह किसी ग़ैर मरई चीज़ को सजदा कर रही है।
शाम की तारीकी बतदरीज बढ़ रही थी, नीम के दरख़्त कपकपा रहे थे। शायर मेरे सीने में एक नया जहां आबाद कर रहा था। अचानक मेरे दिल से कुछ अलफ़ाज़ उठे और लबों से बाहर निकल गए।
“अगर इन्क़लाब यही है, तो मैं भी इन्क़लाबी हूँ!”
शायर ने अपना सर उठाया और मेरे कांधे पर हाथ रखते हुए कहा, “तो फिर अपने ख़ून को किसी तश्तरी में निकाल कर रख छोड़ो, कि हमें आज़ादी के खेत के लिए इस सुर्ख़ खाद की बहुत ज़रूरत महसूस होगी। आह! वो वक़्त किस क़दर ख़ुशगवार होगा जब मेरी आहों की ज़र्दी तबस्सुम का रंग इख़्तियार कर लेगी।”
ये कह कर वो कुएं की मुंडेर से उठा और मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर कहने लगा, “इस दुनिया में ऐसे लोग मौजूद हैं जो हाल से मुतमइन हैं। अगर तुम्हें अपनी रूह की बालीदगी मंज़ूर है तो ऐसे लोगों से हमेशा दूर रहने की सई करना। उनका एहसास पथरा गया है। मुस्तक़बिल के जां-बख़्श मनाज़िर उनकी निगाहों से हमेशा ओझल रहेंगे। अच्छा, अब मैं चलता हूँ।”
उसने बड़े प्यार से मेरा हाथ दबाया, और पेशतर इसके कि मैं उससे कोई और बात करता वो लंबे क़दम उठाता हुआ झाड़ियों के झुंड में ग़ायब हो गया।
बाग़ की फ़िज़ा पर ख़ामोशी तारी थी। मैं सर झुकाए हुए ख़ुदा मालूम कितना अ’र्सा अपने ख़यालात में ग़र्क़ रहा कि अचानक उस शायर की आवाज़ रात की रानी की दिलनवाज़ ख़ुशबू में घुली हुई मेरे कानों तक पहुंची। वो बाग़ के दूसरे गोशे में गा रहा था;
ज़मीन सितारों की तरफ़ ललचाई हुई नज़रों से देख रही है।
उठो और इन नगीनों को उसके नंगे सीने पर जड़ दो।
ढाओ, खोदो, चीरो, मारो।
नई दुनिया के मे’मारो! क्या तुम्हारे बाज़ुओं में क़ुव्वत नहीं है?
मैं आहों का ब्योपारी हूँ।
लहू की शायरी मेरा काम है
गीत ख़त्म होने पर मैं बाग़ में कितने अ’र्से तक बैठा रहा। ये मुझे क़तअ’न याद नहीं। वालिद का बयान है कि मैं उस रोज़ घर बहुत देर से आया था।
- पुस्तक : آتش پارے
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