साढ़े तीन आने
स्टोरीलाइन
इस कहानी में सत्ताधारी और शासक वर्ग पर शदीद तंज़ किया गया है। रिज़वी जेल से बाहर आने के बाद एक कैफे़ में बैठ कर फ़ल्सफ़ियाना अंदाज़ में सामाजिक अन्याय की बात करता है कि किस तरह ये समाज एक-एक ईमानदार इंसान को चोर और क़ातिल बना देता है। इस सिलसिले में वो फग्गू भंगी का ज़िक्र करता है जिसने बड़ी ईमानदारी से उसके दस रुपये उस तक पहुँचाए थे। ये वही फग्गू भंगी है जिसको वक़्त पर तनख़्वाह न मिलने की वजह से साढे़ तीन आने चोरी करने पड़ते हैं और उसे एक साल की सज़ा मिलती है।
“मैंने क़त्ल क्यों किया। एक इंसान के ख़ून में अपने हाथ क्यों रंगे, ये एक लंबी दास्तान है । जब तक मैं उसके तमाम अ’वाक़िब ओ अ’वातिफ़ से आपको आगाह नहीं करूंगा, आपको कुछ पता नहीं चलेगा... मगर उस वक़्त आप लोगों की गुफ़्तगु का मौज़ू जुर्म और सज़ा है। इंसान और जेल है... चूँकि मैं जेल में रह चुका हूँ, इसलिए मेरी राय नादुरुस्त नहीं हो सकती।
“मुझे मंटो साहब से पूरा इत्तफ़ाक़ है कि जेल, मुजरिम की इस्लाह नहीं कर सकती। मगर ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उसपर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है... और ये लतीफ़ा नहीं कि इस हक़ीक़त को जानते पहचानते हुए भी हज़ारहा जेलख़ाने मौजूद हैं।
हथकड़ियां हैं और वो नंग-ए-इंसानियत बेड़ियाँ… मैं क़ानून का ये ज़ेवर पहन चुका हूँ।”
ये कह कर रिज़वी ने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराया। उसके मोटे मोटे हब्शियों के से होंट अ’जीब अंदाज़ में फड़के। उसकी छोटी छोटी मख़मूर आँखें, जो क़ातिल की आँखें लगी थीं चमकीं। हम सब चौंक पड़े थे। जब उसने यकायक हमारी गुफ़्तगु में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था।
वो हमारे क़रीब कुर्सी पर बैठा क्रीम मिली हुई काफ़ी पी रहा था। जब उसने ख़ुद को मुतआ’रिफ़ कराया तो हमें वो तमाम वाक़ियात याद आ गए जो उसकी क़त्ल की वारदात से वाबस्ता थे। वा’दा माफ़ गवाह बन कर उसने बड़ी सफ़ाई से अपनी और अपने दोस्तों की गर्दन फांसी के फंदे से बचा ली थी।
वो उसी दिन रिहा होकर आया था। बड़े शाइस्ता अंदाज़ में वो मुझसे मुख़ातिब हुआ, “माफ़ कीजिएगा मंटो साहब… आप लोगों की गुफ़्तगु से मुझे दिलचस्पी है। मैं अदीब तो नहीं, लेकिन आपकी गुफ़्तगु का जो मौज़ू है उसपर अपनी टूटी-फूटी ज़बान में कुछ न कुछ ज़रूर कह सकता हूँ।
फिर उसने कहा, “ मेरा नाम सिद्दीक़ रिज़वी है…लिंडा बाज़ार में जो क़त्ल हुआ था, मैं उससे मुतअ’ल्लिक़ था।”
मैंने उस क़त्ल के मुतअ’ल्लिक़ सिर्फ़ सरसरी तौर पर पढ़ा था। लेकिन जब रिज़वी ने अपना तआ’रुफ़ कराया तो मेरे ज़ेहन में ख़बरों की तमाम सुर्खियां उभर आईं।
हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि आया जेल मुजरिम की इस्लाह कर सकती है। मैं ख़ुद महसूस कर रहा था। हम एक बासी रोटी खा रहे हैं। रिज़वी ने जब ये कहा, “ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उस पर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है, जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है।” तो मुझे बड़ी तसकीन हुई। मैंने ये समझा जैसे रिज़वी ने मेरे ख़यालात की तर्जुमानी कर दी है।
क्रीम मिली हुई कॉफ़ी की प्याली ख़त्म करके रिज़वी ने अपनी छोटी छोटी मख़मूर आँखों से मुझे देखा और बड़ी संजीदगी से कहा, “मंटो साहब आदमी जुर्म क्यों करता है... जुर्म क्या है, सज़ा क्या है... मैंने उसके मुतअ’ल्लिक़ बहुत ग़ौर किया है। मैं समझता हूँ कि हर जुर्म के पीछे एक हिस्ट्री होती है... ज़िंदगी के वाक़ियात का एक बहुत बड़ा टुकड़ा होता है, बहुत उलझा हुआ, टेढ़ा मेढ़ा... मैं नफ़्सियात का माहिर नहीं... लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि इंसान से ख़ुद जुर्म सरज़द नहीं होता, हालात से होता है!”
नसीर ने कहा, “आपने बिल्कुल दुरुस्त कहा है।”
रिज़वी ने एक और कॉफ़ी का आर्डर दिया और नसीर से कहा, “मुझे मालूम नहीं जनाब, लेकिन मैंने जो कुछ अ’र्ज़ किया है अपने मुशाहिदात की बिना पर अ’र्ज़ किया है वर्ना ये मौज़ू बहुत पुराना है। मेरा ख़याल है कि विक्टर ह्यूगो... फ़्रांस का एक मशहूर नावेलिस्ट था... शायद किसी और मुल्क का हो... आप तो ख़ैर जानते ही होंगे, जुर्म और सज़ा पर उसने काफ़ी लिखा है। मुझे उसकी एक तस्नीफ़ के चंद फ़िक़रे याद हैं।”
ये कह कर वह मुझसे मुख़ातिब हुआ, “मंटो साहब, ग़ालिबन आप ही का तर्जुमा था…क्या था? वो सीढ़ी उतार दो जो इंसान को जराइम और मसाइब की तरफ़ ले जाती है... लेकिन मैं सोचता हूं कि वो सीढ़ी कौन सी है। उसके कितने ज़ीने हैं।
“कुछ भी हो, ये सीढ़ी ज़रूर है, उसके ज़ीने भी हैं, लेकिन जहां तक मैं समझता हूँ , बेशुमार हैं। उनको गिन्ना, उनका शुमार करना ही सबसे बड़ी बात है। मंटो साहब, हुकूमतें राय शुमारी करती हैं, हुकूमतें आ’दाद-ओ-शुमार करती हैं, हुकूमतें हर क़िस्म की शुमारी करती हैं... उस सीढ़ी के ज़ीनों की शुमारी क्यों नहीं करतीं। क्या ये उनका फ़र्ज़ नहीं... मैंने क़त्ल किया, लेकिन उस सीढ़ी के कितने ज़ीने तय करके किया? हुकूमत ने मुझे वा’दा माफ़ गवाह बना लिया, इसलिए कि क़त्ल का सुबूत उसके पास नहीं था, लेकिन सवाल ये है कि मैं अपने गुनाह की माफ़ी किससे मांगूं? वो हालात जिन्होंने मुझे क़त्ल करने पर मजबूर किया था। अब मेरे नज़दीक नहीं हैं, उनमें और मुझ में एक बरस का फ़ासिला है। मैं इस फ़ासले से माफ़ी मांगूं या उन हालात से जो बहुत दूर खड़े मेरा मुँह चिड़ा रहे हैं।”
हम सब रिज़वी की बातें बड़े ग़ौर से सुन रहे थे। वो बज़ाहिर ता’लीम याफ़्ता मालूम नहीं होता था, लेकिन उसकी गुफ़्तुगु से साबित हुआ कि वो पढ़ा लिखा है और बात करने का सलीक़ा जानता है।
मैंने उससे कुछ कहा होता, लेकिन मैं चाहता था कि वो बातें करता जाये और मैं सुनता जाऊं। इसी लिए मैं उसकी गुफ़्तुगु में हाइल न हुआ।
उसके लिए नई कॉफ़ी आ गई थी। उसे बना कर उसने चंद घूँट पिए और कहना शुरू किया, “ख़ुदा मालूम मैं क्या बकवास करता रहा हूँ, लेकिन मेरे ज़ेहन में हर वक़्त एक आदमी का ख़याल रहा है... उस आदमी का, उस भंगी का जो हमारे साथ जेल में था। उसको साढे़ तीन आने चोरी करने पर एक बरस की सज़ा हुई थी।”
नसीर ने हैरत से पूछा, “सिर्फ़ साढे़ तीन आने चोरी करने पर?”
रिज़वी ने यख़ आलूद जवाब दिया, “जी हाँ, सिर्फ़ साढे़ तीन आने की चोरी पर… और जो उसको नसीब न हुए, क्योंकि वो पकड़ा गया। ये रक़म खज़ाने में महफ़ूज़ है और फग्गू भंगी ग़ैर महफ़ूज़ है क्योंकि हो सकता है वो फिर पकड़ा जाये, क्योंकि हो सकता है उसका पेट फिर उसे मजबूर करे, क्योंकि हो सकता है कि उससे गू-मूत साफ़ कराने वाले उसकी तनख़्वाह न दे सकें, क्योंकि हो सकता है उसको तनख़्वाह देने वालों को अपनी तनख़्वाह न मिले... ये हो सकता है का सिलसिला मंटो साहब अ’जीब- ओ-ग़रीब है। सच पूछिए तो दुनिया में सब कुछ हो सकता है... रिज़वी से क़त्ल भी हो सकता है।”
ये कह कर वह थोड़े अ’र्से के लिए ख़ामोश हो गया। नसीर ने उससे कहा,“आप फग्गू भंगी की बात कर रहे थे?”
रिज़वी ने अपनी छिदरी मूंछों पर से कॉफ़ी रूमाल के साथ पोंछी, “जी हाँ… फग्गू भंगी चोर होने के बावजूद, या’नी वो क़ानून की नज़रों में चोर था। लेकिन हमारी नज़रों में पूरा ईमानदार। ख़ुदा की क़सम मैंने आज तक उस जैसा ईमानदार आदमी नहीं देखा, साढे़ तीन आने उसने ज़रूर चुराए थे, उस ने साफ़ साफ़ अदालत में कह दिया था कि ये चोरी मैंने ज़रूर की है, मैं अपने हक़ में कोई गवाही पेश नहीं करना चाहता।
“मैं दो दिन का भूका था, मजबूरन मुझे करीम दर्ज़ी की जेब में हाथ डालना पड़ा। उससे मुझे पाँच रुपये लेने थे... दो महीनों की तनख़्वाह। हुज़ूर उसका भी कुछ क़ुसूर नहीं था। इसलिए कि उसके कई ग्राहकों ने उसकी सिलाई के पैसे मारे हुए थे। हुज़ूर, मैं पहले भी चोरियां कर चुका हूँ। एक दफ़ा मैंने दस रुपये एक मेम साहब के बटुवे से निकाल लिए थे। मुझे एक महीने की सज़ा हुई थी। फिर मैंने डिप्टी साहब के घर से चांदी का एक खिलौना चुराया था इसलिए कि मेरे बच्चे को निमोनिया था और डाक्टर बहुत फ़ीस मांगता था।
हुज़ूर मैं आपसे झूट नहीं कहता। मैं चोर नहीं हूँ... कुछ हालात ही ऐसे थे कि मुझे चोरियां करनी पड़ीं... और हालात ही ऐसे थे कि मैं पकड़ा गया। मुझसे बड़े बड़े चोर मौजूद हैं लेकिन वो अभी तक पकड़े नहीं गए। हुज़ूर, अब मेरा बच्चा भी नहीं है, बीवी भी नहीं है... लेकिन हुज़ूर अफ़सोस है कि मेरा पेट है, ये मर जाये तो सारा झंझट ही ख़त्म हो जाये। हुज़ूर मुझे माफ़ कर दो, लेकिन हुज़ूर ने उसको माफ़ न किया और आदी चोर समझ कर उसको एक बरस क़ैद बा-मशक़क़्त की सज़ा दे दी।”
रिज़वी बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में बोल रहा था। उसमें कोई तसन्नो, कोई बनावट नहीं थी। ऐसा लगता था कि अलफ़ाज़ ख़ुद-ब-ख़ुद उसकी ज़बान पर आते और बहते चलते जा रहे हैं। मैं बिल्कुल ख़ामोश था। सिगरेट पे सिगरेट पी रहा था और उसकी बातें सुन रहा था। नसीर फिर उससे मुख़ातिब हुआ, “आप फग्गू की ईमानदारी की बात कर रहे थे?”
“जी हाँ।”रिज़वी ने जेब से बीड़ी निकाल कर सुलगाई, “मैं नहीं जानता क़ानून की निगाहों में ईमानदारी क्या चीज़ है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि मैंने बड़ी ईमानदारी से क़त्ल किया था... और मेरा ख़याल है कि फग्गू भंगी ने भी बड़ी ईमानदारी से साढे़ तीन आने चुराए थे।
“मेरी समझ में नहीं आता कि लोग ईमानदार को सिर्फ़ अच्छी बातों से क्यों मंसूब करते हैं, और सच पूछिए तो मैं अब ये सोचने लगा हूँ कि अच्छाई और बुराई है क्या। एक चीज़ आपके लिए अच्छी हो सकती है, मेरे लिए बुरी। एक सोसाइटी में एक चीज़ अच्छी समझी जाती है, दूसरी में बुरी। हमारे मुसलमानों में बग़लों के बाल बढ़ाना गुनाह समझा जाता है, लेकिन सिख्ख उससे बेनियाज़ हैं।
अगर ये बाल बढ़ाना वाक़ई गुनाह है तो ख़ुदा उनको सज़ा क्यों नहीं देता। अगर कोई ख़ुदा है तो मेरी उससे दरख़्वास्त है कि ख़ुदा के लिए तुम ये इंसानों के क़वानीन तोड़ दो, उनकी बनाई हुई जेलें ढा दो. और आसमानों पर अपनी जेलें ख़ुद बनाओ। ख़ुद अपनी अदालत में उनको सज़ा दो, क्योंकि और कुछ नहीं तो कम अज़ कम ख़ुदा तो हो।”
रिज़वी की इस तक़रीर ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। उसकी ख़ामकारी ही असल में तअस्सुर का बाइ’स थी। वो बातें करता था तो यूं लगता है जैसे वो हमसे नहीं बल्कि अपने आपसे दिल ही दिल में गुफ़्तुगू कर रहा है।
उसकी बीड़ी बुझ गई थी, ग़ालिबन उसमें तंबाकू की गांठ अटकी हुई थी। इसलिए कि उसने पाँच-छः मर्तबा उसको सुलगाने की कोशिश की। जब न सुलगी तो फेंक दी और मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा, “मंटो साहब, फग्गू मुझे अपनी तमाम ज़िंदगी याद रहेगा। आपको बताऊंगा तो आप ज़रूर कहेंगे कि जज़्बातियत है, लेकिन ख़ुदा की क़सम जज़्बातियत को इसमें कोई दख़्ल नहीं। वो मेरा दोस्त नहीं था, नहीं, वो मेरा दोस्त था क्योंकि उसने हर बार ख़ुद को ऐसा ही साबित किया।”
रिज़वी ने जेब में से दूसरी बीड़ी निकाली मगर वो टूटी हुई थी। मैंने उसे सिगरेट पेश किया तो उस ने क़ुबूल कर लिया, “शुक्रिया, मंटो साहब... माफ़ कीजिएगा, मैंने इतनी बकवास की है, हालाँकि मुझे नहीं करनी चाहिए थी इसलिए कि माशाअल्लाह आप…”
मैंने उसकी बात काटी, “रिज़वी साहब, मैं इस वक़्त मंटो नहीं हूँ सिर्फ़ सआदत हसन हूँ। आप अपनी गुफ़्तुगू जारी रखिए। मैं बड़ी दिलचस्पी से सुन रहा हूँ।”
रिज़वी मुस्कुराया। उसकी छोटी छोटी मख़मूर आँखों में चमक पैदा हुई, “आपकी बड़ी नवाज़िश है।” फिर वो नसीर से मुख़ातिब हुआ, “मैं क्या कह रहा था?”
मैंने उससे कहा, “आप फग्गू की ईमानदारी के मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहना चाहते थे।”
“जी हाँ,” ये कह कर उसने मेरा पेश किया हुआ सिगरेट सुलगाया, “मंटो साहब, क़ानून की नज़रों में वो आदी चोर था। बीड़ियों के लिए एक दफ़ा उसने आठ आने चुराए थे। बड़ी मुश्किलों से, दीवार फांद कर जब उसने भागने की कोशिश की थी तो उसके टख़ने की हड्डी टूट गई थी।
“क़रीब क़रीब एक बरस तक वो उसका इलाज कराता रहा था, मगर जब मेरा हम इल्ज़ाम दोस्त जरजी बीस बीड़ियां उसकी मअ’र्फ़त भेजता तो वो सबकी सब पुलिस की नज़रें बचा कर मेरे हवाले कर देता। वा’दा माफ़ गवाहों पर बहुत कड़ी निगरानी होती है, लेकिन जरजी ने फग्गू को अपना दोस्त और हमराज़ बना लिया था। वो भंगी था, लेकिन उसकी फ़ित्रत बहुत ख़ुशबूदार थी।
“शुरू शुरू में जब वो जरजी की बीड़ियां लेकर मेरे पास आया तो मैंने सोचा, इस हरामज़ादे चोर ने ज़रूर इनमें से कुछ ग़ायब करली होंगी, मगर बाद में मुझे मालूम हुआ कि वो क़तई तौर पर ईमानदार था।
बीड़ी के लिए उसने आठ आने चुराते हुए अपने टख़ने की हड्डी तुड़वा ली थी मगर यहां जेल में उसको तंबाकू कहीं से भी नहीं मिल सकता था, वो जरजी की दी हुई बीड़ियां तमाम-ओ-कमाल मेरे हवाले कर देता था, जैसे वो अमानत हों। फिर वो कुछ देर हिचकिचाने के बाद मुझसे कहता, बाबू जी, एक बीड़ी तो दीजिए और मैं उसको सिर्फ़ एक बीड़ी देता... इंसान भी कितना कमीना है!”
रिज़वी ने कुछ इस अंदाज़ से अपना सर झटका जैसे वो अपने आपसे मुतनफ़्फ़िर है, “जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ मुझ पर बहुत कड़ी पाबंदियां आ’इद थीं। वा’दा माफ़ गवाहों के साथ ऐसा ही होता है। जरजी अलबत्ता मेरे मुक़ाबले में बहुत आज़ाद था। उसको रिश्वत दे दिला कर बहुत आसानियां मुहय्या थीं। कपड़े मिल जाते थे, साबुन मिल जाता था, बीड़ियां मिल जाती थीं।
“जेल के अंदर रिश्वत देने के लिए रुपये भी मिल जाते थे। फग्गू भंगी की सज़ा ख़त्म होने में सिर्फ़ चंद दिन बाक़ी रह गए थे, जब उसने आख़िरी बार जरजी की दी हुई बीड़ियां मुझे ला कर दीं। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया। वो जेल से निकलने पर ख़ुश नहीं था।
मैंने जब उसको मुबारकबाद दी तो उसने कहा, बाबू जी, मैं फिर यहां आ जाऊँगा। भूके इंसान को चोरीकरनी ही पड़ती है... बिल्कुल ऐसे ही जैसे एक भूके इंसान को खाना खाना ही पड़ता है। बाबू जी आपबड़े अच्छे हैं, मुझे इतनी बीड़ियां देते रहे... ख़ुदा करे आपके सारे दोस्त बरी हो जाएं। जरजी बाबू आपको बहुत चाहते हैं।”
नसीर ने ये सुन कर ग़ालिबन अपने आपसे कहा, “और उसको सिर्फ़ साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में सज़ा मिली थी।”
रिज़वी ने गर्म कॉफ़ी का एक घूँट पी कर ठंडे अंदाज़ में कहा, “जी हाँ, सिर्फ़ साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में... और वो भी खज़ाने में जमा हैं। ख़ुदा मालूम उनसे किस पेट की आग बुझेगी?”
रिज़वी ने कॉफ़ी का एक और घूँट पिया और मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा, “हाँ मंटो साहब, उसकी रिहाई में सिर्फ़ एक दिन रह गया था। मुझे दस रूपयों की अशद ज़रूरत थी... मैं तफ़सील में नहीं जाना चाहता। मुझे ये रुपये एक सिलसिले में संतरी को रिश्वत के तौर पर देने थे। मैंने बड़ी मुश्किलों से काग़ज़ पेंसिल मुहय्या करके जरजी को एक ख़त लिखा था और फग्गू के ज़रिये से उस तक भेजवाया था कि वो मुझे किसी न किसी तरह दस रुपये भेज दे। फग्गू अनपढ़ था। शाम को वो मुझ से मिला। जरजी का रुक़्क़ा उसने मुझे दिया। उसमें दस रुपये का सुर्ख़ पाकिस्तानी नोट क़ैद था। मैंने रुक़्क़ा पढ़ा। ये लिखा था, रिज़वी प्यारे, दस रुपये भेज तो रहा हूँ, मगर एक आदी चोर के हाथ, ख़ुदा करे तुम्हें मिल जाएं क्योंकि ये कल ही जेल से रिहा हो कर जा रहा है। मैंने ये तहरीर पढ़ी तो फग्गू भंगी की तरफ़ देख कर मुस्कुराया। उसको साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में एक बरस की सज़ा हुई थी। मैं सोचने लगा अगर उसने दस रुपये चुराए होते तो साढे़ तीन आने फ़ी बरस के हिसाब से उस को क्या सज़ा मिलती?”
ये कह कर रिज़वी ने कॉफ़ी का आख़िरी घूँट पिया और रुख़सत मांगे बगै़र कॉफ़ी हाऊस से बाहर चला गया।
- पुस्तक : ٹھنڈا گوشت
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